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________________ प्रस्तावना (३) तणुयवाय (१४. १२. ८) शुद्ध रूप है तणुवाय (४) लोयायलोय (१५. १०. ४), , लोयालोय (५) तणुयपवणु (१६. १७. १) , " तणुपवणु (६) जीवायजीव (३. ४. ६) , , जीवाजीव (७) रयमणी (६. ११. ११) , रमणीउ प्रन्थकार जब कब दो समानार्थी शब्दों का एक साथ प्रयोग भी करता है जैसा कि निम्न स्थलों से स्पष्ट है : ... (१) बहु-थुत्त-सहासहि (८. ८. १.) यहाँ 'बहु' और 'सहास' प्रायः समान अर्थ व्यक्त करते हैं। (२) बारस-विह-सावय-विविह-धम्मु (३. १३. ८) इसमें बारसविह कहने के पश्चात् विविह शब्द को आवश्यकता नहीं रहती। (३) बहु-कय-सुकय-कम्म (६. २. १) यहाँ कय शब्द की सार्थकता सुकय के कारण नहीं है । (४) बहु-परिमल-बहुलई (८. ५. १) यहाँ बहु और बहुल समानार्थक शब्द हैं। (५) णहि किरण-णियट-जालेण मुक्कु (१०. ८. १) इसमें णियट (निकट) तथा जाल प्रायः समानार्थी शब्द हैं । इनके अतिरिक्त ग्रन्थ में ऐसे अनेक सामासिक शब्द हैं जिनमें एक पद दूसरे की पुनरुक्ति मात्र है जैसे कि-समसरिसा=सम+सदृश (१. ७. ६); जंबूदीवदीव-(१६. १०. ५) जम्बूद्वीपद्वीप । गयउरपुर-गजपुरपुर (१५. १२. १); चउगइगइ-चतुर्गतिगति (२. ६. १०)। कहना आवश्यक नहीं कि इन समासों के अन्तिम पद सदृश, दीप, पुर और गइ अनावश्यक हैं । अपनी भाषा को प्रभावोत्पादक बनाने के लिये कविने अनुरणनात्मक तथा ध्वन्यात्मक शब्दों का भी यथावश्यक प्रयोग किया है । वे शब्द हैं :(१) गुलगुलगुलंतु ( ३. १५. ७; ६. १२. ६; १४. १६. ४; १४. २२. ४) (२) धगधगधगंतु (६. १०.४; ८. १५. १०,१४.१५.२, १४.२६.५) (३) खलखलखलंतु (८. १९. ८) (४) सगसगंतु (१४. २२. ७) (५) लहलहलहंतु (१४. २६. ४) (६) महमहति (१. ५. ४) (७) घुरुहुरिय (७. १०. ११) (८) थरहरिय (१२. १२. २०) (९) किलकिलइ (१२. १२. ३) (१०) घुरुक्कार (७. १०.११) प्रन्थ में अनेक शब्द ऐसे हैं जो वर्तमान हिन्दी शब्दों के अत्यधिक समान हैं। इनका उपयोग उसी अर्थ में हुआ है जिसमें कि आज हो रहा है । वे शब्द हैं :(१) अणक्ख हिन्दी शब्द अनख (२) चड ( १. १८. ९, १०. १२. १) , चढ़ना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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