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प्रस्तावना
ही की गई है। क्रियाओं को स्वरान्त बनाने की प्रक्रिया दो प्रकार की है। एक तो संस्कृत की क्रियाओं में स्वर जोड़कर
और दूसरी अन्तिम व्यञ्जन का लोप कर जैसे कि जन् से जन; चुम्ब से चुम्ब और पालय् से पाल, बोधय से बोध । ग्रन्थ में तद्भव क्रियाएँ ८८ प्रतिशत हैं; देशी १२ प्रतिशत ।
ग्रन्थ के रचनाकाल के समय अपभ्रंश भाषा सामान्य बोलचाल की भाषा थी। बोलचाल की भाषा में परिवर्तन द्रतगति से हुआ करते हैं। वैसे हेमचन्द्र ने इस भाषा का व्याकरण रचकर उसे स्थायित्व देने का प्रयत्न किया किन्तु प्रतीत होता है कि पद्मकीर्ति के समय में काव्य ग्रन्थों में भी उनका कडाई से पालन नहीं किया जाता था। हे. के नियम ८.१.७७ के अनुसार क ग आदि का लोप होता है किन्तु इस ग्रन्थ में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जहाँ लोप नहीं भी हुआ। उदाहरण के लिये ग्रन्थ में दोजिब्भ (१. ४. १०) तथा दोइब्भ (४.११.७; १४. २७.८) दोनों का उपयोग हुआ है जिनमें से पहले में ज का लोप नहीं किया गया दूसरे में लोप किया गया है । हेमचन्द्र व्याकरण के उक्त नियम के अनुसार ज , द् आदि का लोप उस अवस्था में नहीं किया जाता है जब वे शब्द के प्रथम अक्षर हों । अब यह विचारणीय है कि समास के उत्तर पद का प्रथम अक्षर शब्द का प्रथम अक्षर माना जाए या नहीं । यदि माना जाता है तो उसका लोप नहीं होगा अन्यथा होगा । इस ग्रन्थ में बहुधा समास के उत्तरपद के प्रथम अक्षर को शब्द का प्रथम अक्षर न मान कर ज् , द् आदि का लोप किया गया है जैसे कि. यण (जन)(१. ३. ८) यर (कर) (७. ७. १); 'यल (तल) १.२. १०; तथा याल ( काल ) (६. १०. ३) किन्तु ऐसे भी उदाहरण उपलब्ध हैं जब कि कुछ शब्दों में कुछ स्थानों पर इनका लोप नहीं हुआ है जैसे कि पडिवासुदेव (१७. ७. ७.) किन्तु पडिवासुएव (१७. २२. १) रूप भी प्राप्त है। - ग्रन्थ में कुछ शब्दो के अन्त में लेखक ने स्वेच्छा से अ के स्थान में इ किया है। उदाहरण के लिये भिल्ल का भिल्लि (५. ११. ९); वद का वदि (१. ४.१० ३.७.५) स्रह का सहि (१३. ६.६); घर का घरि (१३. ५.११); सग्ग का सग्गि (१. ८. ९); वास का वासि (४. ८. ७; १३. १८. ८)। एक स्थान पर तो समास के समस्त पूर्व पदों के अन्त में अ के स्थान में इ लाई गई है। वह है-वणि काणणि चच्चरि घरि पएसि (३. ९.६)। यथार्थ में यह समास वण-काणण-चच्चर-पएसि-है जैसा कि इस की पूर्व पंक्ति में है । वह पंक्ति है-पहि-गाम-खेत-कव्वडपएसि ।
अपभ्रंश उकार-बहुला भाषा है । यह जानते हुए कविने 'उ' का अनपेक्षित स्थानों पर भी उपयोग किया है । 'उ' एक कारक विभक्ति है जिसके उपयोग समास के पूर्वपद के अन्त में अपेक्षित नहीं किन्तु इस ग्रन्थ में अनेक उदाहरण ऐसे हैं जहां 'उ' समास के पूर्व पद के अन्त में प्रयुक्त हुआ मिलता है जैसा :(१) आयारु-अंगु (७. २. २) चाहिये आयार-अंगु । (२) घणु-पवणु (१७. ४. ३) , घण-पवणु (३) सुसमु-सुसमु (१७. ४.३), सुसम-सुसमु । (४) सुसमु-दुसमु (१७. ६. २) , सुसम-दुसमु । (५) आसण्णु-भव्वु ( १८. १२. १०), आसण्ण-भव्वु ।
उक्त उदाहरणों में पूर्व पदों को यदि स्वतन्त्र शब्द मानकर उन्हें उत्तरपद के विशेषण के रूप में ग्रहण किया जाय तो शब्द की सार्थकता ही नष्ट हो जाती है।
प्रन्थ में कुछ शब्द ऐसे भी हैं जिनका उपयोग उनके रूढि-क्रमागत अर्थ से भिन्न अर्थ में किया गया है । वे हैं :
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