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प्रस्तावना
उन स्थलों पर कवि की भाषा साधारण बोलचाल की भाषा से जा मिली है तथा जिन स्थलों पर दो व्यक्तियों की बातचीत का प्रकरण है वहाँ भी भाषा सुबोध है, मुहावरेदार है तथा छोटे छोटे वाक्यों में गठित है। दीक्षा ग्रहण करने के पूर्व अपने पुत्र को राज्यभार सौंपते हुये पिता अपने पुत्र को इस सरलता से संबोधित करता हैं :
अहो किरणवेय करि एउ रज्जु । महु आएँ कज्जु ण किंपि अज्जु ।
संसार असार पुत एहु । घरवासि जीऊ पर जाइ मोहु ।
दि-रुद ख जाहिँ जित्थु । अम्हारिसेहिं को गहणु तित्थु । ( ४. ६ )
जहाँ इस सरलता का साम्राज्य वर्णनों में से एकदम उठ जाता है वहाँ यह सरल भाषा समासबहुल, अलंकृत और सरस हो जाती है किन्तु यहाँ उसका प्रसादगुण नष्ट नहीं होता, वह दुरूह नहीं हो जाती; उसमें जड़ता नही आने पाती, वह सर्वदा प्रवाहमय बनी रहती है । राजकुमार के वर्णन की यह भाषा देखिये कितनी सदी हुई है।
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जणमण सुहि जण विउहिँ सहियउ । परधणपरतियखलयणरहियउ । परियण सुअणसयण परियरियउ । धणक गकलगुणजय सिरि-सहियउ ।
करिवराई हरि जह भुवबलियउ । कलगुणणिलउ ण इयर हैँ छलियउ ।
जलणिहि रिसगहिरु गुणसहियउ । अवगुणअवजसविरहिउ अवहिउ ॥ ( ५.४ )
कविने अपनी भाषा को प्रभावपूर्ण बनाने के लिये सुन्दर सुभाषितों, अभिव्यक्तियों और लोकोक्तियों का भी उपयोग किया है। इनसे जब कब अर्थान्तरन्यास की छटा भी फूट पड़ी है जैसे कि निम्न उदाहरणों में :
( १ ) अहव मणुसु मयमत्तउ महिलपसत्तउ किं कासु वि जणि लज्जइ ( १ . १२. ११ ) | ( मद में मस्त तभी स्त्री में अनुरक्त मनुष्य कब किससे लज्जा करता है ) ।
(२) असुहावणु खलु संसारवासु । ( २. २.१० )
(३) अहव सच्छंदु ण करइ काइँ । ( ११. २.११ ) ( स्वच्छंद व्यक्ति क्या नहीं करता )
( ४ ) अहवा महंत जे कुलपसूय । ते आवय-विद्धिहि सरिसरूय । (१०. ८.४ )
( जो महान् तथा कुलोत्पन्न हैं वे आपत्ति तथा विपत्ति में एकरूप रहते हैं । )
( ५ ) स्वलसंगे सुअणु वि होई खुद्दु । १०. १०.६. ( खलों के साथ सज्जन भी क्षुद्र हो जाते हैं )
उपर्युक्त गुणों के साथ कवि की भाषा में कुछ दोष भी है । जब कच कवि ने वाक्यों की विचित्र शब्द-योजना की है जैसे कि :
( १ ) गउ उववणि वणि णंदणसमाणि ( २. १५.५ ) इस वाक्य से कवि यह अर्थ व्यक्त करना चाह रहा है कि ( वह राजा ) नन्दनवन के समान उपवन में गया । अतः यहाँ शब्द योजना इस प्रकार की अपेक्षित है-गउ उववणि णंदणवणसमाणि ।
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( २ ) अरहंत भडारउ देवदेउ । अट्ठारहदोसविमुकलेउ ( ३. ४. ४ ) यहाँ कवि यह कहना चाह रहा है कि अरहंत भट्टारक देवों के देव हैं । वे अट्ठारह दोषों से मुक्त हैं ( अथवा वे अट्ठारह दोसों से और लेप (अभिमान) से मुक्त हैं ।) 'अट्ठारहदों सहि" मुक्कलेउ' से वह अर्थ सुन्दरता से व्यक्त होता है और यदि लेप को अलग से कहना है शब्द-योजना यह हो सकती है- मुक्कअट्ठारहदो सलेउ ।
( ३ ) कोमल कर मणहर णाइ करिणि ( ६. १. ८ ) । यह वाक्य एक रानी के वर्णन के प्रसंग में आया है । यदि वर्तमान शब्द-योजना के अनुसार अर्थ किया जाता है तो अर्थ होगा- वह कोमल करवाली करिगि के समान मनोहर थी ।
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