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________________ मुनिधर्म । ५९ भ्रमण की अवधि में भी वह श्रद्धालुओं का प्रतिबोधन करता था । यह भ्रमण नृपतिविहीनराज्य में उसके लिए वर्जित थाँ । भ्रमण की अवधि में और अन्य समय भी शिथिलाचार साधुओं की तथा महिलाओं की संगति उसके लिए सर्वथा निषिद्ध थी । भ्रमण की अवधि में उपयुक्त पवित्र स्थान देखकर मुनि अपनी इच्छानुसार चिन्तन, मनन ओर ध्यान में लीन हो सकता था । * पा. च. में मुनियों के मूल. गुणों का भी बहुधा उल्लेख किया गया है । एक स्थान पर इन गुणों के नाम देकर उनकी कुछ चर्चा भी की गई है।' ये मूल गुण अट्ठाईस है तथा उनके नाम हैं- पांच महाव्रतों का पालन, पांचसमितियों का धारण, पांच इंद्रियों का निग्रह, छह आवश्यकों की चर्या, खड़े खड़े भोजन, एकबार भोजन, वस्त्रत्याग, केशलुंच, अस्नान, भूमि - शयन तथा दांतो का न धोना । ये मूलगुण मूलाचार में बताए गए मुनि के मूलगुणों के अनुसार ही हैं । पा. च. में मुनियों द्वारा किए जाने वाले दो प्रकार के तपों का वारंवार उल्लेख हुआ है । किन्तु इन दोनों का सुसंबद्ध और स्पष्ट विवेचन उसमें नहीं । ये दो तप, जैसा कि अन्य ग्रन्थों से ज्ञात होता है, बाह्य और आभ्यंतर तप हैं । इनमें से प्रत्येक के छह छह प्रकार हैं। प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्त, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान आभ्यंतर तप के प्रकार हैंतथा अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशयनाशन तथा कायक्लेश बाह्यतप के प्रकार हैं । इनमें से प्रत्येक के थोडे बहुत स्वरूप की चर्चा ग्रन्थ में कहीं न कहीं अवश्य की गई है किन्तु अनशन, वैयावृत्त तथा कायक्लेश तपों का अन्य की अपेक्षा से अधिक विवरण प्राप्त है । अनशन के कई भेद है जैसे छट्टम, अट्टम, दसम दुवाल, मासद्ध, मास आदि । चान्द्रायण व्रत भी अनशन का एक प्रकार है । इसमें चन्द्र की कलाओं के अनुसार भोजन के कवलों की संख्या में घटाचढ़ो की जाती है । अन्यमुनियों, वृद्धों और व्याधिपीडितों, बालकों तथा क्षुधितों की सेवा करना वैयावृत्त है ।" कायक्लेश भी कई प्रकार का होता है । वर्षाकाल को तरु की छाया में, हेमन्त को चौराहे पर तथा ग्रीष्म को सूर्य की धूप व्यतीत करना उसका एक प्रकार है । ग्रन्थ में इसीको मुनियों द्वारा करते हुए बताया गया है ।" बहुधा इन तपों के प्रसङ्ग में ही मुनियों द्वारा बाईस पैरीषह सहने का भी उल्लेख किया गया है। पर इनके नाम या स्वरूप की चर्चा ग्रन्थ में नहीं की गई । उपर्युक्त द्वादश तप तथा बाईस परीषह मिलकर मुनि के चौतीस उत्तर गुण होते हैं ।" पा. च. में मुनियों को इन उत्तर गुणों से युक्त बताया गया है ।" इन मूल और उत्तर गुणों से युक्त मुनि के लिए अन्य आचार विचारों का भी विधान है। उनमें से प्रथम वीर्याचार है जिसके अनुसार मुनि को अपनी शक्ति के अनुरूप तपश्चर्या आदि करना चाहिए, शक्ति को अपेक्षा से कम नहीं । मुनि का आहार छयालीस दोषों से रहित होना चाहिए ।" मुनि अपने आहार को छह कारणों से ग्रहण करता है और छह कारणों से ही उसका त्याग करता है ।" मुनि को पन्द्रह प्रमाद पदों से भी दूर रहना आवश्यक है ।" ये पन्द्रह प्रमाद के स्थान हैं-चार विकथाएं, चार कषाय, पांच इन्द्रिय-विषय, निद्रा और स्नेह । मुनि को दस प्रकार को भक्ति करना भी जरूरी है और सबसे आवश्यक मुनि के लिए यह है कि वह ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष की अभिलाषा करे । २१ ९. वही. ४ ९ ५ ५. ७. ९ ७. ७. १० । २ वही. ४. ९.२ । ३. वही. ४ ९ ६ । ४. वही. ४. १०. १०; ७. ९. १२, ९३; १४. ३. १।५. पा. च. ३. १. ६ ४. ८. १०. । ६. मु. आ. १. २. ३ । ७. पा. च. ५. ८. ८ ७. ५. ५। ८. मू. आ. ५. १६२९. मू आ. ५. १४९ । १०. पा. च. ३. १. ९ ७.५.६, ७। इनके विशेष विवरण के लिए देखिए टिप्पणियां पृ. १९५ । ११. पा. च. ४. ९. ३, ८ ७, ६. ३ । १२. पा. च. ४. १०. ५, ६, ७. ७. ८ । १३. ३. १, ८, १४. १. ७। १४. प्र सा, ३. ९ की तात्पर्यवृत्ति टीका । १५. पा. च. ३. १. ६, ४. १०. ३ । १६. पा. च. ७. ५.२ । १७. वही ७. ५. ६; इन छयालिस के नामों के लिए देखिए टिप्पणियाँ पृ० २०५ । १८. वही. ७. ७. ९. इन बारह कारणों के नामों के लिए देखिए टिप्पणियाँ पृ० २०५ । १९. पा. च. ७. ६. १२०. वही ७. ६. २ । दस प्रकारको भक्तियों के नामों के लिए देखिए टिप्पणियाँ पृष्ठ २०५ । २९. वही ७. ७. ५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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