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प्रस्तावना
में अणुव्रतों का उल्लेख करने के पश्चात् अगले सूत्र में दिग् , देश, अनर्थदण्ड, सामायिक, प्रोषध, उपभोगपरिभोगपरिमाण तथा अतिथिसंविभाग का उल्लेख हुआ है किन्तु इन व्रतों को वर्गों में विभाजित नहीं किया गया है। तत्वार्थसूत्र की सर्वार्थसिद्धि टीका में इन सात में से दिग्, देश और अनर्थदण्डको एक वर्ग में समाविष्ट कर उस वर्ग का नाम गुणवत किया है किन्तु शेष चार का एक अलग वर्ग माना हो यह वहां स्पष्ट नहीं है क्योंकि उस वर्ग का कोई नाम नहीं दिया है । तत्त्वार्थसूत्र की राजवार्तिक टीकों में इन सात व्रतों को वर्गों में विभाजित करना तो दूर रहा उसमें गुणवतों और शिक्षाबतों का इस नाम से उल्लेख भी नहीं किया । कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में गुणवतों और शिक्षात्रतों का विस्तृत विवरण प्राप्त है । इस ग्रन्थ में दिग्, अनर्थदण्ड तथा भोगोपभोगपरिमाण को गुणव्रत तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, पात्रदान तथा देशवत को शिक्षाव्रत माना है। श्रावकप्रज्ञप्ति में कार्तिकेय अनुप्रेक्षा के पात्रदान तथा देशव्रत को अतिथिसंविभाग तथा देशावकाशिकवत नाम दिया है; शेष व्यवस्था कार्तिकेय अनुप्रेक्षा के अनुसार ही है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में भी इन सातव्रतों की व्यवस्था
के अनमार है केवल पात्रदान तथा देशव्रत को क्रमश: वैयावृत्त और देशावकाशिक नाम दिए गए हैं। इस निरूपण का मथितार्थ यह है कि-..
(१) गुणव्रत तथा शिक्षाव्रतों की संख्या में विभिन्नग्रन्थों में कोई मतभेद नहीं है। (२) मंतभेद संलेखना को इन व्रतों में समाविष्ट करने के सम्बन्ध में है ।
(३) चारित्रपाहुड, सावयधम्मदोहा, पासणाहचरिउ तथा वसुनन्दि श्रावकाचार में संलेखना को एक शिक्षाव्रत माना है तथा देशावकाशि को एक स्वतंत्र व्रत के रूप में स्थान नहीं दिया गया है।
(४) तत्त्वार्थसूत्र, उसकी टीकाओं, कार्तिकेय अनुप्रेक्षा, श्रावकप्रज्ञप्ति तथा रत्नकरण्ड श्रावकाचार में संलेखना को इन व्रतों में समावेशित नहीं किया तथा देशावकाशिकको एक स्वतंत्र व्रत मानकर उसका समावेश इनमें किया है।
(५) जिन ग्रन्थों में देशावकाशिक को एक स्वतन्त्र व्रत माना गया उनमें उसका समावेश शिक्षावतों में तथा भोगोपभोगपरिमाण का समावेश गुणवतों में किया गया है किन्तु सर्वार्थसिद्धि टीका में देशावकाशिक को गुणवतों में स्थान नहीं दिया गया।
(६ ) वर्गों में व्रतों का क्रम सर्वत्र एक सा नहीं है; तथा
(७) एक ही व्रत को भिन्नभिन्न ग्रन्थों में भिन्न भिन्न नाम दिए गए हैं। मुनिधर्म :
पा. च. में मुनिधर्म का स्वरूप मुनियों के आचार के वर्णनों से तथा मुनिधर्म में दीक्षित हो रहे श्रावकों को मुनियों द्वारा दिए गए उपदेशों में प्रस्फुटित हुआ है । पा. च. में मुनिधर्म में दीक्षित होने का वही अधिकारी माना गया है जो पांचो इंद्रियों तथा मन के प्रपञ्च को समाप्त कर चुका हो। इसके पश्चात् ही वह गुरु के समीप जाकर दीक्षा ग्रहण कर सकता था । दीक्षित होने के साथ ही अपने इस उदासीन भाव को व्यक्त करने हेतु सद्यो-दीक्षत मुनि अपने केशों का पंचमुष्टि लुंचन करता था। दीक्षित होने के उपरान्त मुनि को धर्म-ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक था, इन ग्रन्थों में द्वादश अंगों और चौदह पूर्वी का प्राधान्य होता था । मुनि का यह अध्ययन द्रव्य और क्षेत्र की परिशुद्धि के करलेने के पश्चात् ही प्रारंभ होता था। अध्ययन की परिसमाप्ति पर ही मुनि जिनालयों के दर्शन के लिये विभिन्न स्थानों का भ्रमण करता था।
१. सूत्र ७.२१ की टीका । २. गाथा ३४१ से ३६८। ३. श्लोक २८० से ३२८ । ४. श्लोक ६७ से १२१. । ५. पा. च. २. १६.९।६ पा..च. २. १६. ४। ७. वही. ३. १.३ ४.१०.४; तथा ७.२.३।८. वही, ७. २. ११.
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