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छेदोपस्थापन ।
तत्पश्चात् कठिनतर का । निश्चित ही उक्त स्थिति विषम है । संभवतः प्रवचनसार के चारित्राधिकार की गाथा क्रमांक नौ में प्रयुक्त पमत्तो (प्रमत्त) तथा छेदोपस्थापनक के छेद शब्दों के विभिन्न अर्थ इस विषम स्थिति के मूल में हैं। क्योंकि प्रमत्त का गलती त्रुटि या दोषयुक्त (व्यक्ति ) तथा छेद का “ भंग" अर्थ सामान्यतः ग्रहण किए जाते हैं और
दोपस्थापन के यथार्थ स्वरूप की परंपरा धीरे २ लुप्त हो चुकी थी अतः " प्रमत्त" के संदर्भ में संगत अर्थ बैठाने के प्रयत्न में टीकाकारों ने प्रमत्त का अर्थ " च्युत" और छेदोपस्थापक का अर्थ उस मुनि से ले लिया जो एक बार मुनिधर्म से च्युत होकर पुनः यतिधर्म में प्रतिष्ठित किया गया हो । किंतु इन दोनों शब्दों का यत्किचित् भिन्न अर्थ भी संभव है। सिद्धान्त कौमुदी से ज्ञात होता है मद् धातु (जिससे प्रमत्त शब्द बना है) का अर्थ हर्षित होना, भ्रम या संशय में पड़ना या तृप्त होना होता है' तथा “ छिदि" धातु का अर्थ (जिससे छेइ शब्द बना है) द्वैधीकरण या खंड खंड करना होता है । प्रमद् के तीनअर्थों में से द्वितीय अर्थ ग्रहण करने पर और फलतः प्रमत्त का अर्थ संशय या भ्रम में पड़ा हुआ ग्रहण करने पर प्रवचनसार में दी गई छेदोपस्थापनाका इस प्रकार का स्वरूप सामने आता है-प्रत्रज्या ग्रहण करने वाला मुनि सर्वसंग्राहक सामायिक संयम को ग्रहण करता था । तदनंतर जब सामायिक-ग्रहीत मुनि सामायिक के निर्विकल्पक (अस्पष्ट) स्वरूप के कारण अपने चिन्तन, मनन या आचार के संबंध में भ्रम या संशय में पड़ने लगता था तो उसे सविकल्प (या स्पष्ट ) स्वरूप के पांच महावत आदि को अलग अलग करके ( उनके खंड खंड करके उनका उपदेश दिया जाता था। इस खंड खंड किये गए उपदेश को ग्रहण करने के कारण वह छेदोपस्थापक होता था। तात्पर्य यह कि प्रवचनसार के अनुसार भी) मुनिधर्म को दो स्पष्ट भागों में बांटा गया था । इसका कारण यह है कि किसी उपदेशक के अनुयायी उस उपदेशक के आचार को उसी रूप में ग्रहण कर लेते हैं । पहले यह सिद्ध किया ही जा चुका है कि महावीर ने पहले सामायिक संयम धारण किया और केवल ज्ञान की उत्पत्ति के पश्चात् पांचवतों का उपदेश दिया। प्रतीत होता है इसी तथ्य को दृष्टि में रखकर महावीर के अनुयायी यति -जीवन को दो भागों में विभक्त करने लगे। किन्तु महावीर के यति जीवन में
और उनके अनुयायियों के यति जीवन में एक भेद रहा । महावीर ने पार्श्वनाथ के धर्म में दीक्षा ग्रहण की थी और तदनंतर अपनी प्रतिभा, तपस्या तथा अनुभव के बल से उस एकरूप सामायिक को पांच व्रतों में विभाजित कर उस पर आचरण करने लगे और उपदेश देने लगे। किन्तु इस परिवर्तन के होते हुए भी वे अपना अलग संप्रदाय स्थापित नहीं करना चाहते थे। यह उनके स्थान स्थान पर इस कथन से सिद्ध है कि मैं पुरुषादानीय पार्श्व का ही अनुसरण करता हूं। किन्तु पांचनतों के बारे में उन्होंने यह कथन नहीं किया। उनके शिष्यों के सामने जब पार्श्व के चाउज्जाम तथा महावीर के पांच व्रतों का भेद स्पष्टरूप से सामने आया और उस भेद को मिटाने या उनमें सामञ्जस्य स्थापित करने की समस्या आई तब महावीर के अनुयायियों ने पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म के चार याम का अर्थ महावीर के प्रथम चार व्रतों से लगाकर उस समस्या का हल निकाला । इससे महावीर का वह कथन कि मैं पुरुषादानीय पार्श्व का अनुसरण करता हूं अव्यक्तरूप से लागू हुआ और इससे महावीर के उपदेश की प्राचीनता अनायास ही सिद्ध हो गई तथा महावीर के साथ जो सामायिक विभाजन का कार्य जुड़ा हुआ था वह अब चौथे व्रत के विभाजन कार्य में परिणित कर दिया गया। कुछ काल के पश्चात् भारत में अपने अपने धर्म को अत्यंत प्राचीन या अनादि सिद्ध करने की प्रवृत्ति भिन्न भिन्न धर्म के अनुयायियों में उत्पन्न हुई तो जैन धर्मावलम्बियों ने भी अपने धर्म के स्वरूप को अत्यन्त प्राचीन सिद्ध करना प्रारंभ किया । इस हेतु उन्होंने महावीर द्वारा उपदेशित महाव्रतों को भगवान् ऋषभदेव द्वारा उपदेशित बताया जैसा कि हम इन्द्रभूति के कथन से जानते है तथा मूलाचार के कथन से भी।
१. मदी-हर्षग्लेपनयो-भ्वादि ८६३, मदी-हर्षे - दिवादि ९९, मद तृप्तियोगे-चुरादि १६४ । २. छिदिरे-द्वैधीकरणे-रुधादि-३
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