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प्रस्तावना
सपडिक्कमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्य य जिणस्स । अवराहे पडिकमणं मज्झिमाणं जिणवराणं । मू. आ. ७. १८५. सक्किमणो धम्मो पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं कारणजाए पडिक्कमणं ॥ आ. नि. १२४४.
प्रवचनसार में भी इस प्रकार की व्यवस्था का संकेत मिलता है। इस के चारित्राधिकार में एक मुनि के दो उपदेशक होने का उल्लेख है, एक वह जो मुनि धर्म के इच्छुक को प्रारंभिक उपदेश देकर प्रवज्या ग्रहण कराता है और दूसरा वह जो प्रव्रज्याग्रहीत मुनि को छेदोपस्थापक बनाता है ।' पहले को गुरु और दूसरे उपदेशक को निर्यापक की संज्ञा दी गई है। प्रवचनसार के टीकाकारों ने छेदोपस्थापक का “छेदे सति उपस्थापकः " निर्वाचन कर यह अर्थ लगाया है कि जब कोई मुनि किसी कारण से अपने मुनिधर्म का छेद (भंग) कर लेता है और जब वह पुनः मुनिधर्म में प्रतिष्ठित किया जाता है तब वह छेदोपस्थापक होता है । इस अर्थ पर विचार करने के पूर्व प्रवचनसार के चारित्राधिकार की सातवीं से दसवीं गाथा तक अमृतचन्द्र द्वारा की गई टीका के कुछ अंशों पर दृष्टि डाल लेना उपयुक्त होगा । वे अंश निम्नानुसार हैं
. ततः सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणैक महाव्रतश्रवणात्मना श्रुतज्ञानेन समये भवन्तमात्मानं जानन् सामायिकमधिरोहति । ततः समस्तावद्यकर्मायतनं कायमुत्सृज्य यथाजातरूपं स्वरूपमेकमेकाग्रेणालम्ब्य व्यवतिष्ठमान उपस्थितो भवति, उपस्थितस्तु सर्वत्र समदृष्टित्वात्साक्षाच्छ्रमणो भवति । ३. ७ की टीका
सर्वसावद्ययोगप्रत्याख्यानलक्षणैकम हात्रतव्यक्तवशेन हिंसास्तेयाब्रह्मपरिग्रहविरत्यात्मकं पञ्चतयं व्रतं........ एते निर्विकल्पसामायिकसंयम विकल्पत्वात् श्रमणानां मूलगुणा एव । तेषु यदा निर्विकल्पसामायिकसंयमाधिरूढत्वेनानभ्यस्तविकल्पत्वात्प्रमाद्यति तदा........इति संप्रधार्य विकल्पेनात्मानमुपस्थापयन् छेदोपस्थापको भवति । ३. ८, ९ की टीका.
यतो लिङ्गग्रहणकाले निर्विकल्प सामायिक संयमप्रतिपादकत्वेन यः किलाचार्यः प्रवज्यादापकः स गुरुः । यः पुनरनन्तरं सविकल्पछेदोपस्थापन संयमप्रतिपादकत्वेन छेदं प्रत्युपस्थापकः स निर्यापकः ........ । ३. १० की टीका
इन स्थलों को ध्यानपूर्वक देखने पर ये चार बातें स्पष्टतः सामने आती हैं - (१) मुनिधर्म में प्रविष्ट होने की इच्छा करनेवाला व्यक्ति समस्त सदोष क्रियाओं के त्यागरूपी एक महाव्रत का श्रवण कर प्रथमतः सामायिक में प्रतिष्टित होता था। (२) यह सामायिक संयम पांच महाव्रत आदि मुनि के मूल गुणों की अपेक्षा से निर्विकल्पक (अस्पष्ट ) एक रूप का था । (३) इसी निर्विकल्पक सामायिक संयम के स्थान पर उपदिष्ट और उसकी अपेक्षा से सविकल्पक ( स्पष्ट ) स्वरूप के पांच महाव्रत आदि मुनि के मूल गुण छेदोपस्थापन कहलाते थे । ( ४ ) इस छेदोपस्थापन संयम में प्रतिष्ठित होनेवाला छेदोपस्थापक कहलाता था । इन बातों के साथ यह बात भी सामने आती है कि सामायिक संयम में प्रमादकर पुनः यति धर्म में प्रतिष्ठित होनेवाला छेदोपस्थापक कहलाता था । और मुनि सामायिक में प्रमाद इस कारण से करता था कि वह संयम अस्पष्ट स्वरूप का था । अतः यतिधर्म में पुनः प्रतिष्ठापित करते समय अधिक स्पष्ट पांच महाव्रत आदि का उपदेश उसे दिया जाता था । इस स्थिति को ही श्रीजयसेनाचार्य ने प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति टीका में इन शब्दों में समझाया है
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यदा निर्विकल्पसमाधौ समर्थो न भवत्ययं जीवस्तदा यथा.... तथायं जीवोऽपि निश्चयमूलगुणाभिधानपरमसमाध्यभावे छेदोपस्थापनं, चारित्रं गृह्णाति । छेदे सति उपस्थापनं छेदोपस्थापनम् । अथवा व्रतभेदेनोपस्थापनं छेदोपस्थापनम् । तच्च संक्षेपेण पञ्चमहाव्रतरूपं भवति - ३.८, ९ की टीका
यहां यह बात समझना कठिन है कि मुनि धर्म में नए नए प्रतिष्ठित होनेवाले व्यक्ति को निर्विकल्प समाधि का उपदेश पहले ही कैसे दिया जायगा जब कि उसकी प्राप्ति सविकल्प समाधि की अपेक्षा अत्यन्त कठिन है । साधारणतः कम कठिन व्रत आदि के आचरण का उपदेश पहले दिया जाता है तब फिर कठिन का
१. प्र. सा. ३. १०.
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