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________________ २२८] पार्श्वनाथचरित १५. १२. ६. इस ग्रन्थमें पहावइ (प्रभावती) को पार्श्वनाथके आर्यिका-संधकी प्रधान बताया है। ति. प (४.११.८०) में पार्श्वनाथकी मुख्य आर्यिकाका नाम सुलोका या सुलोचना बताया गया है। क. सू. (१६२) के अनुसार उसका नाम पुण्यचूला था। सोलहवीं सन्धि १६.१.७ रज्जु (राजु)-जगश्रेणीके सातवें भागप्रमाणको राजुका प्रमाण कहा जाता है-जगसेढिए सत्तमभागो रज्जू पभासते-ति. प. १.३२।। १६.२.२ लोयागास (लोकाकाश )-जितने आकाशमें धर्म तथा अधर्म द्रव्यके निमित्तसे होनेवाली जीव एवं पुद्गलोंकी गति तथा स्थिति हो वह लोकाकाश है। लोकाकाशकी सब दिशाओंमें अलोकाकाश स्थित है। १६.२.३ सय पमाणु-उस लोकाकाशका क्षेत्रफल तीन-सौ तेतालीस राजु प्रमाण है। १६.२.७ खरपुहवि (खरपृथिवी)-रत्नप्रभा पृथिवीके तीन भाग हैं-खर, पङ्क तथा अब्बहुल । यहाँ खर-पुहविसे तात्पर्य रत्नप्रभा पृथिवीके खर भागसे है। यह खर भाग पुनः सोलह भागोंमें विभक्त है। उनमेंसे चित्रा पहिला भाग है। इस भागमें अनेक वर्णोंसे युक्त विविध धातुएँ हैं अतः इसका नाम चित्रापृथिवी है। इसकी मोटाई एक हजार योजन है (ति. प. २. १० से १५) । इस पृथिवीकी समूची गहराईतक मेरु पर्वत गया है। १६.२,९ तसणाडि (वसनाडि)-वृक्षके ठीक मध्यभागमें स्थित सारके समान लोकके बीच में एक राजु लम्बा-चौड़ा तथा कुछ कम तेरह राजु ऊँचा क्षेत्र है। यह क्षेत्र त्रस जीवोंका निवासस्थान है अतः इसे त्रसनाडि कहा जाता है। १६.३.८ पिहुलत्तें."अट्ट-सिद्धशिलाकी चौड़ाई (पिहुलत्त) मध्यमें आठ योजन है। वह दोनों बाजुओंमें क्रमशः कम चौड़ी होती गई है तथा अन्तमें एक अंगुलमात्र है बहमझदेसभाए अट्ठेव य जोयणाई बाहल्लं । चरिमंतेसु य तणुई अंगुल संखेजई भागं ।। वृ० सं० सू०२८१ १६.३.१० सिद्धशिलाकी लम्बाई पैंतालीस लाख योजन है पणयाललक्खजोयण विक्खम्भा सिद्धसिलफलिह विमला । बृ० सं० सू० २८० १६.४.४ नारकियोंकी उत्कृष्ट आयु रत्नप्रभादिक सातों पृथिवियोंके अन्तिम इन्द्रक बिलोंमें क्रमसे एक, तीन, सात, दस, सत्रह, बाईस तथा तेईस सगरोपम प्रमाण है (ति. प. २. २०३ )। १६.४.९ पारयह""चउरासिय-रत्नप्रभादिक सातों पृथिवियोंमें क्रमसे तीस लाख, पच्चीस लाख, पन्द्रह लाख, दस लाख, तीन लाख, पाँच कम एक लाख तथा पाँच बिल हैं। इस प्रकार नारकियोंके कुल बिलोंकी संख्या चौरासी लाख है (ति. प. २. २७)। १६.५.१ इस कडवकमें देवकल्पोंको संख्या तथा उनके नामोंका निर्देश है। कल्पोंकी संख्याक विषयमें आचार्यों में मतभेद है। कुछके अनुसार कल्पोंकी संख्या सोलह है (ति. प. ८. १२७) तथा अन्य आचार्योंके अनुसार उनकी संख्या बारह है (ति. प.८. १२०)। जिन आचार्यों के अनुसार कल्पोंकी संख्या बारह है वे ब्रह्मोत्तर, कापिष्ट शुक्र तथा शतार नामक कल्पोंका अस्तित्व स्वीकार नहीं करते। त. सू. (४.१९) में कल्पोंकी संख्या सोलह बताई गई है। इस ग्रन्थमें इस विषयमें त. सू. का अनुसरण किया गया है। .११ णव "पंचोत्तराई–यहाँ प्रैवेयकोंके ऊपर अनुत्तरोंकी तथा उनके ऊपर पञ्चोत्तरोंकी स्थिति बताई गई है। यहाँ दिये गये अनुत्तर तथा पञ्चोत्तर नाम संशयास्पद प्रतीत होते हैं। ति०प० तथा रा० वा० के अनुसार उत्तम प्रैवेयक विमान पटलके ऊपर नव अनुदिश हैं तथा इनके सैकड़ों योजन ऊपर एक सर्वार्थ सिद्धि पटल है। इसकी चारों दिशाओंमें विजय, वैजयन्त, जयन्त तथा अपराजित नामक विमान हैं जिनके मध्यमें सर्वार्थसिद्धि विमान है। इन पाँचोंको ही अनुत्तर संज्ञा दी गयी है (देखिए ति.प. ८. ११७ तथा त. सू. ४. १९पर राजवार्तिक पृ० २२५ तथा २३४ )। तात्पर्य यह कि जिन्हें ति. प. आदिमें अनुदिश कहा है उन्हें यहाँ अनुत्तर तथा जिन पाँच विमानोंको ति. प. आदिमें अनुत्तर कहा है उन्हें यहाँ पञ्चोत्तर कह दिया गया है। १६.५.१३,१४ चउरासी पयासई-सौधर्मादि सोलह कल्पोंमें तथा ग्रैवेयक, अनुदिश और अनुत्तरोंमें विमानोंको संख्या इस प्रकार है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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