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________________ टिप्पणियाँ [२०७ ७.८.४ मईसुई (मतिश्रुति) छन्दकी अपेक्षासे दोनों इ दीर्घ कर दी गयी हैं। ये पाँच ज्ञानोंमें से प्रथम दो ज्ञानोंके नाम हैं। इन्द्रिय तथा मनकी सहायतासे पदार्थका जो ग्रहण तथा मनन होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं। व्यवहारमें इसे ही इन्द्रियज्ञान या प्रत्यक्षज्ञान कहा जाता है। मतिज्ञानके विषयभूत पदार्थसे भिन्न पदार्थके ज्ञानको श्रुतज्ञान कहते हैं अत्थादो अत्यंतरमुवलं तं भांति सुदणाणं । गो. सा. जी. का. ३१४ ७. ८.९ खीरमहावण (क्षीरमहावनम् )-अन्यग्रन्थोंमें इस वनका उल्लेख प्राप्त है किन्तु ति. प. में कहीं इसका निर्देश नहीं। महाटवीं क्षीरवणां नानाश्वापदभीषणाम् । त्रि. च.६.२.३०२ पयिडन्तो संपत्तो खीरवणाभिहाणं महाडविं । सि. पा.पृ.१२६ सोऽगात् क्षीरवणारण्यं राजधानीमिवान्तकीम् । पार्श्व. च. ३.५६५ ७.१० इस कडवकमें प्रयुक्त छंदका निश्चय नहीं हो सका। इस छंदमें प्रथम पाद पज्झटिका तथा दूसरा पज्झटिकाका उत्तरार्ध है जो मधुभार कहलाता है। स्वयंभूने पउमचरिउ (४०.९) तथा पुष्पदन्तने महापुराण (१३.१०) में इसी छंदका उपयोग किया है । पउमचरिउके विद्वान सम्पादक डा. एच. सी. भायाणीने इस छंदको विषम द्वीपदी कहा है। स्वयंभूने इसके विपरीत छंदका भी उपयोग किया है जिसमें प्रत्येक छंदका प्रथम पाद मधुभार तथा दूसरा पज्झटिका है (देखिए पउम चरिउ १७.८)। ७.११.१ वइजयतु (वैजयंत) यह दूसरे अनुत्तरका नाम है । ति. प .के अनुसार कनकप्रभके जीवका प्राणत कल्पमें जाना सिद्ध होता है क्योंकि उस ग्रन्थमें पार्श्वनाथका प्राणत कल्पसे अवतीर्ण होनेका उल्लेख है (ति. प. ४.५२४) कल्पसूत्र में भी पार्श्वके प्राणत कल्पसे च्युत होकर उत्पन्न होनेका उल्लेख है (क. सू. १५०).। किन्तु रविषेणाचायने पद्मचरितमें पार्श्वका वैजयन्त स्वर्गसे अवतरित होना बताया है (पद्म.च २०.३५)। पद्मकीर्तिने यहाँ पद्मचरितका ही अनुसरण किया है। ७.११.१०. सायर (सागर)-यह एक कालमान है। दस कोडाकोडी पल्योंका जितना प्रमाण होता है उतना पृथक पृथक एक-एक सागरका प्रमाण है। -पक्ष (पल्य)-यह भी एक कालमान है (ति. प. १.११९ से १२५).। ७.१३.५ हंसराइ (हंसनदी)-इस नदीके विषयमें कुछ ज्ञात नहीं है। ७.१३.७ सुण्णउ पउ (शून्यं पदम् )-विष्णुपदसे आशय है। ७.१३.१० अदविवरदलई-(अष्टविवरदलानि)-तन्त्रमें हृदयको आठ पखुड़ियोंवाला कमल कहा जाता है। यहाँ उसीसे आशय है। आठवीं सन्धि ८.८.१ पंचमहाकल्लाणइं (पंचमहाकल्याणानि)-प्रत्येक तीर्थकरके जीवनकी पाँच महत्त्वपूर्ण घटनाएँ जब कि देवगण उत्सवपूर्वक हर्ष प्रकट करते हैं, कल्याणक कहलाती हैं। उनके नाम क्रमशः (१) गर्भावतरण, (२) जन्माभिषेक, (३) दीक्षाग्रहण, (४) केवलज्ञानकी उत्पत्ति तथा (५) निर्वाण प्राप्ति, हैं। ८.१.३. कासी (काशी)-ईसापूर्व आठवीं, नौवीं शताब्दिमें भारतवर्ष सोलह विषयों ( महाजनपदों) में विभक्त था। काशी उन विषयों में से एक था तथा उसकी राजधानी वाणारसी थी। ८.१.५. हयसेण-समवायांग (२४७) के अनुसार पार्श्वनाथके पिताका नाम आससेण ( अश्वसेन ) था। यहाँ कविने अश्वके समानार्थी शब्द हयका प्रयोगकर उसे हयसेनमें परिवर्तित किया है। गुणभद्र तथा वादिराजने पार्श्वनाथ के पिताका नाम विश्वसेन बताया है। (देखिए उ. पु. ७३ .७५ तथा श्री. पा. ९. ६५)। ८. २.१ वम्मदेवि-समवायांग (२४७) में पार्श्वनाथकी माताका नाम वामा बताया गया है। वम्मदेवी उसी नामका रूपान्तर है। गुणभद्रके अनुसार पार्श्वनाथकी माताका नाम ब्राह्मी तथा वादिराजके अनुसार ब्रह्मदत्ता था। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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