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________________ २०६] पार्श्वनाथचरित ७. ६.७ सोलहकारणाई–देखिए ३.६.६ पर दी गई टिप्पणी। ७. ७.२ प्रायासगमण-देखिए ५.८.२ पर दी गई टिप्पणी। जलसेढि तन्तुय-जल, श्रेणि और तन्तु ये ऋद्धियों के नाम हैं। ये चारण ऋद्धिके आठ भेदोंमेंके तीन भेद ह। आठोंके नाम इस प्रकार है जैल घतंतु फर्लेपुवीर्य आगीससेदि ....ध. ख. वे. ख. पृष्ठ ८० जिसके द्वारा जीव पैरोंके रखनेसे जलकायिक जीवोंकी विराधना न करके समुद्रके मध्यमें जाता है और दौड़ता है वह जलचारण ऋद्धि है । (ति. प. ४.१०३३,४.५) जिसके द्वारा धूम, अग्नि, पर्वत और वृक्षके तन्तु समूहपरसे ऊपर चढ़नेकी शक्ति प्राप्त हो वह श्रेणिचारण ऋदि है। (ष. ख. वे. ख. पृष्ठ ८०) जिसे षट्खंडागमकी धवला टीकामें तन्तु ऋद्धि कहा है। प्रतीत होता है, उसे ही तिलोयपण्णत्तिमें मक्कडतन्तु नाम दिया गया है। मक्कडतन्तु वह ऋद्धि है जिसके द्वारा मुनि-महर्षि शीघ्रतासे किए गए पद-निक्षेपमें अत्यन्त लघु होते हुए मकड़ीके तन्तुओंकी पंक्तिपर गमन करता है। (ति. प. ४.१०४६) -दूरगवणु (दूरगमनम् )-यह जंघाचारण ऋद्धिका ही दूसरा नाम प्रतीत होता है क्योंकि वही एक ऋद्धि है जिसके द्वारा अनेक योजनोंतक गमन किया जा सकता है बहुजोयणगमणं स जंघाचारणारिधि । ति. प.४.१०३७ ७.७.३ सव्वावहि (सर्वावधि)-बुद्धिऋद्धिके जो अठारह भेद हैं उनमें से एक अवधिज्ञान भी है। अवधिज्ञानके पुनः तीन प्रभेद हैं-देशावधि, परमावधि तथा सर्वावधि । पुद्गल आदि समस्त वस्तुओंको मर्यादापूर्वक जानना सर्वावधिज्ञान नामक ऋद्धि है (प. ख. वे. खं. पृ.४७)। यह केवल चरमशरीरी और महाव्रतीके ही होती है (गो. सा. जी. का. ३७३ )। -मणपज्जव (मनःपर्यय)-यह भी बुद्धिऋद्धिका एक भेद है । चिन्ता अचिन्ता या अर्धचिन्ताके विषयभूत अनेक भेदरूप पदार्थको जिसके द्वारा नरलोकके भीतर जाना जाता है वह मनःपर्ययज्ञान नामक ऋद्धि है। -अवहि (अवधि)-चूँकि सर्वावधिका उल्लेख अलगसे किया जा चुका है अतः यहाँ अवधिके शेष दो भेदोंसे आशय है। -अंगलग्ग (अंगलग्न) इसके द्वारा कवि, सम्भवतः, पाँच अंगों ( यथार्थतः पाँच इन्द्रियों) से सम्बन्धित ऋद्धियोंकी ओर संकेत कर रहा है, वे पाँच दूरस्वादित्व दूरस्पर्शत्व, दूरघ्राणत्व, दूरश्रवणत्व तथा दूरदर्शित्व नामक ऋद्धियाँ हैं। इनके द्वारा रसना आदि इन्द्रियोंकी शक्ति इतनी बढ़ जाती है कि वे संख्यातयोजनप्रमाण क्षेत्रमें स्थित वस्तुके स्वाद आदि जाननेमें समर्थ हो जाती हैं। ७. ७.४ सव्वीसहि ( सौषधि)-यह औषधि ऋद्धिका एक भेद है। जिस ऋद्धिके बलसे दुष्कर तपसे युक्त मुनियोंका स्पर्श किया हुआ जल या वायु तथा उनके रोम और नखादि व्याधि हरनेवाले हो जाते हैं वह सौषधि नामक ऋद्धि है । ति. प. ४. १०७३)। -विउव्वण (विकुर्वणा)-इसे ही विक्रिया ऋद्धि कहा जाता है। जिस ऋद्धिके बलसे शरीरमें इच्छानुसार परिवर्तन करनेकी क्षमता प्राप्त हो उसे विक्रिया ऋद्धि कहते हैं। इसके अणिमा, लघिमा, गरिमा आदि अनेक भेद हैं। (ति. प. ४. १०२४ से १०३२)। ७. ७.७ चउहत्य"। इर्यापथगमनमें चार हाथ आगे दृष्टि डालकर चलनेका निदेश है इरियावहपडिवरणेणवलोगंतेण होदि गंतव्वं । पुरदो जुगप्पमाणं सयापमत्तेण संतेण ॥ मू. आ. ५.१०६. ७.७. ८ कायक्लेशोंके लिए ४. १०.६ पर दी गयी टिप्पणी देखिए। ७. ७. १० अक्खीणमहारणसु (अक्षीणमहानस)-यह क्षेत्र ऋद्धिका एक भेद है। इसके प्रभावसे मुनिके आहारसे शेष, भोजनशालामें रखे हुए अन्नोंमेंसे जिस किसी भी वस्तुको यदि उस दिन चक्रवर्तीका कटक भी खाये तो भी वह लेशमात्र क्षीण नहीं होता। (ति.प. ४. १०८९, १०९०)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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