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प्रस्तावना
पार्श्वनाथ का निर्वाण :
सब ग्रन्थ इस विषय में एकमत हैं कि पार्श्वनाथ को जहां से निर्वाण की प्राप्ति हुई वह सम्मेद शिखर है। यह पर्वत बिहार राज्य के हजारीबाग जिले में स्थित है तथा आज वह जैनियों का प्रमुख तीर्थ है । जैनेतरों में वह पार्श्वनाथगिरि के नाम से सुज्ञात है।
पद्मकीर्ति ने पार्श्व की निर्वाणतिथि का उल्लेख नहीं किया है। अन्य ग्रन्थों में उस तिथि का स्पष्ट निर्देश है। कल्पसूत्र के अनुसार पार्श्वनाथ को विशाखा नक्षत्र में श्रावणशुक्ला अष्टमी को पूर्वाह्न में मोक्ष प्राप्ति हुई। तिलोय पण्णत्ति के अनुसार वह समय श्रावण शुक्ला सप्तमी का प्रदोषकाल है। दिगम्बर लेखक इस संबंध में तिलोय पण्णत्ति का और श्वेताम्बर लेखक कल्प सूत्रका अनुसरण करते आए हैं। पार्श्वनाथ की आयु के संबंध में इस प्रकार का कोई मतभेद नहीं है। सभी के अनुसार पार्श्वनाथ सौ की आयु प्राप्त कर मोक्ष को प्राप्त हुऐ । पार्श्वनाथ के तीर्थ की अवधि :
पूर्ववर्ती तीर्थकर से लेकर उत्तरवर्ती तीर्थकर के जन्म तक पूर्व तीर्थकर का तीर्थ कहलाता है। पार्श्वनाथ के तीर्थ की अवधि २५० वर्ष बतलाई गई है। सब ग्रन्थ इस अवधि के बारे में एकमत हैं। तीर्थ से आशय यथार्थतः उस अवधि का है जिसमें एक तीर्थकर के उपदेश का उसी रूप में पालन किया जाता रहा हो। . पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति :
पार्श्वनाथ का विभिन्न ग्रन्थों में जो जीवन वर्णित है उसके अनुसार उस जीवन का जो सामान्य विवरण सामने आता है वह इस प्रकार है :
भगवान् महावीर के जन्म के लगभग ३५० वर्ष पूर्व वाणारसी के राजा के पुत्र के रूप में पार्श्वनाथ का जन्म हुआ। तीस वर्ष की आयु तक पार्श्वनाथ अपने माता पिता के पास रहे फिर संसार से उदासीन होकर उन्होंने दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्होंने कुछ समय तक कठोर तपश्चर्या की और बाद में अपने उपदेशों से मनुष्यों का कल्याण करते रहे । यह कार्य उन्होंने लगभग सत्तर वर्ष तक किया । तदनंतर पूरी सौ वर्ष की आयु पूरी कर सम्मेदशिखर पर इस भौतिक शरीर का त्याग किया और मोक्ष पाया।
पार्श्वनाथ के जीवन का यह विवरण परंपरागत वर्णन क्रम के तथा सम्प्रदाओं की विभिन्न मान्यताओं के आवरण को दूर करने पर सामने आता है। पार्श्वनाथ के जीवन की इन्हीं घटनाओं को सामने रखकर विद्वानों ने पार्श्वनाथ के संबंध में अन्वेषण कार्य किया है। जिसके फलस्वरूप अब यह निश्चित है कि पार्श्वनाथ एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे। यह सिद्ध करने का श्रेय डा. जेकोबी को है। उन्होंने एस. बी. ई. सीरीज के ४५ वें ग्रन्थ की भूमिका के ३१ से ३५ वें पृष्ठों पर इस संबंध में कुछ सबल प्रमाण प्रस्तुत किए हैं जिनके कारण इस संबंध में अब किसी विद्वान को शंका नहीं रह गई है। डा. जेकोबी के अतिरिक्त अन्य विद्वानों ने भी इस विषय में खोजबीन की है और अपना मत प्रस्तुत किया है। उन विद्वानों में से प्रमुख हैं कौलब्रुक, स्टीवेन्सन, एडवर्ड टामस, डा. बेल्वेलकर, दासगुप्ता, डा. राधाकृष्णन, शापेन्टियर, गेरीनोट, मजुमदार, ईलियट तथा पुसिन । इन विद्वानों के मतों का सार संक्षेप है कि- (१) महावीर के पूर्व एक निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय वर्तमान था । (२) उस निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के प्रधान पार्श्वनाथ थे । जिन प्रमाणों से महावीर के पूर्व निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय का अस्तित्व सिद्ध होता है वे निम्नानुसार हैं :
१. क. स. १६८
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