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प्रस्तावना
का वह नाम रखा । पद्मकीर्ति ने भी इस संबंध में उत्तर पुराण का अनुसरण किया है । किन्तु आवश्यक नियुक्ति में पार्श्व के नाम के संबंध में इस घटना की चर्चा की गई है कि जब पार्श्व वामादेवी के गर्भ में थे तब वामादेवी ने पार्श्व (बाजू) में एक काला सर्प देखा अतः बालक का नाम पार्श्व रखा गया । श्वेताम्बर परम्परा में लिखे गए समस्त ग्रन्थ पार्श्व के नाम के संबंध में इस घटना का उल्लेख करते हैं। पार्श्व और रविकीर्ति :
___पद्मकीर्ति ने पा. च. की पांच संधियों में पार्श्व के यवनराज से हुए युद्ध का वर्णन किया है । पार्श्व ने यह युद्ध रविकीर्ति द्वारा सहायता के लिए किए गए निवेदन पर किया था और इसके लिए वे अपने पिता की आज्ञा पाकर राजधानी कुशस्थल नगर गए थे। इस युद्ध में पार्श्व की विजय हुई और तत्पश्चात् रविकीर्ति ने अपनी कन्या का विवाह पार्श्व से कर देने का निश्चय किया । विमलसूरी के पउम चरियं में ऐसा ही एक प्रसंग वर्णित है-राजा जनक की राजधानी जब यवनों द्वारा घिर गई तब उन्होंने राजा दशरथ को सहायता लिए समाचार भेजा । समाचार पाकर दशरथ ने राम को युद्ध के लिये भेजा। राम ने जाकर यवनों से युद्ध किया और उसे हराया । प्रतीत होता है पद्मकीर्ति ने पउमचरियं के इस कथानक को अपने ग्रन्थ में ग्रहण किया है।
समवायांग तथा कल्पसूत्र में पद्मकीर्ति द्वारा वर्णित इस प्रसंग की कोई चर्चा नहीं है, न हि उनमें पार्श्व के विवाह के सम्बन्ध में कोई उल्लेख है । स्थानांग में पार्श्व के संबंध में केवल यह सूचना दी है कि वे कुमार काल में ही दीक्षित हुए थे । श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार कुमारकाल से आशय उनके राज्याभिषेक से पूर्व की अवस्था का है न कि विवाह के. पूर्व की कुमारावस्था का (उस परम्परा के अनुसार पांच तीर्थकर वासुपूज्य, मल्लि, अरिष्टनेमि, पाव और महावीर ने कुमारकाल में ही दीक्षा ग्रहण की थी। आवश्यक नियुक्ति में यही जानकारी इस प्रकार दी है :
वीरं अरिद्रनेमिं पासं मल्लिं च वासुपुजं च । एए मुत्तण जिणे अवसेसा आसि राजाणो ॥ २५६ ॥
रायकुलेसु विं जाता विसुद्धवंसेसु खत्तियकुलेसु । ण इत्थियाभिसेया कुमारकालम्मि पव्वइया ।। २५७ ॥ · गाथा क्रमांक २४७ के "इत्थिाभिसेया” सामासिक शब्द के निर्वचन के विषय में बहुत विवाद है। कुछ के मत में इसका अर्थ है स्त्री (इथि) और अभिषेक ( अभिसेय) से रहित और कुछ के अनुसार इसका अर्थ है वे जिन्होंने अभिषेक (अभिसेय) की इच्छा (इच्छय) नहीं की। यह पाठ वस्तुतः 'इच्छियाभिसेया' है-ऐसा भी एक मत है।
तिलोय पण्णत्ति तथा पद्मचरित में भी पार्श्व के कुशस्थाल जाने तथा वहां उनके विवाह की चर्चा होने के संबंध में कोई उल्लेख नही है । इसी प्रकार से उत्तरपुराण में भी पार्श्व के कुशस्थल जाने या युद्ध में भाग लेने के प्रसंग का उल्लेख नहीं है न हि वहां पार्श्व के विवाह की योजना का प्रसंग उठाया गया है । पुष्पदन्त तथा वादिराज ने भी इस प्रसंग की कोई चर्चा नहीं की । देवभद्रसूरि ने इस प्रसंग का विस्तार से वर्णन किया है। किन्तु पद्मकीर्ति और देवभद्रसूरि के वर्णन में कुछ भेद भी है । देवभद्रसूरि के अनुसार कुशस्थल के राजा का नाम प्रसेनजित था और उसके पिता का नाम नरधर्म जब कि पद्मकीर्ति ने कुशस्थल के राजा का नाम रविकीर्ति या भानुकीर्ति तथा उसके पिता का नाम शक्रव प्रसंग में देवभद्रमूरि ने यह कथन भी किया है कि प्रसेनजित की कन्या किन्नरियों से पार्श्व की यशोगाथा सुनकर उनके प्रति आकृष्ट हुई थी। देवभद्रसूरी ने रविकीर्ति और पार्श्व में कोई संबंध नहीं बताया जब कि पद्मकीर्ति ने रविकीर्ति को पार्श्व का मामा कहा है। देवभद्रसूरि ने पार्श्व को युद्ध से इस युक्ति से बचा लिया है कि यवनराज ने अपने मंत्रियों से पार्श्व के अलौकिक पुरुष होने की वार्ता सुनकर स्वयं ही पार्श्व के सामने आत्म समर्पण कर दिया । यवन के आत्मसमर्पण करने के पश्चात् ही पार्श्व और प्रभावती के विवाह का वर्णन देवभद्र सूरि ने किया है । पद्मकीर्ति ने विवाह का प्रसंग तो उठाया है पर दोनों
१. उ. पु. ७३. ९२. २. आ. नि. १०९१. ३. प. च. २७ वां उद्देश्य ।
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