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________________ अठारहवों सन्धि भुवन-प्रशंसित तीर्थङ्करके चरणोंमें अपने मस्तकसे प्रणामकर नरेश्वर सामन्तोंके साथ जिनवरकी सभामें बैठा। चारों गतियोंपर प्रकाश डालनेके लिए प्रभंजनकी जिनेन्द्रसे विनति; नरकगतिका वर्णन पृथिवी मण्डलमें सबके द्वारा प्रशंसित प्रभंजन राजाने प्रणाम कर पूछा- "हे परमेश्वर, आप नरगति, तिर्यग्गति, नरकगति और देवगतिके रहस्यको समझायं। उन वचनोंको सुनकर तीर्थङ्करदेवने ( कहा कि राजन . जो पूछा है उसे सुनो । नरकगति गतियोंमें पहिली है। इसमें जीव प्रचुरमात्रामें दुखका अनुभव करते हैं। नरकोंकी चौरासी लाख संख्या बताई गई है । वे भयावह, भीषण, दारुण तथा विविध दुखोंसे युक्त हैं । वहाँ ( जीव ) पीटे जाते हैं तथा असि, घात और कुठार आदि दारुण शस्त्रोंसे छिन्न-भिन्न किये जाते हैं। वहाँ तलवारसे विदारित होनेपर वे ( जीव ) रोते तथा नारकियोंके फाड़नेपर चिल्लाते हैं। वे वैतरणी नदीके जलमें फेंके जाते हैं तथा सेंवलिके पत्रोंसे काटे जाते हैं। असिपत्र नामक घोर वनमें जीव भिन्न-भिन्न समय तक अनेक दुख सहन करते हैं। हे नराधिपति, वहाँ नारकियोंको निमिषके आधेके आधे काल तक भी सुख नहीं है। जिस जीवका मन पूर्वार्जित कर्मोंसे अशुद्ध है, क्या कहीं उसे नरकके पार उतरनेका स्थान है ? ॥१॥ जो नरक जाते हैं उनके दुष्कृत्य अब उन (जीवों) के बारेमें सुनो जो नरकमें जाते हैं । जिन मनुष्योंमें न दया है, न सत्य है और न हि शील है; जो वनमें आग लगाते हैं, जीवोंकी हानि करते हैं तथा सज्जनोंको अपार दुख पहुँचाते हैं; जो मूढ़ बुद्धि अन्य स्त्रियोंमें रतिभाव रखते हैं तथा दूसरेकी धन सम्पत्तिकी अभिलाषा करते हैं, जो निरन्तर दुष्टताका भाव रखते हैं; मांसमें लुब्ध रहते हैं दयासे दूर भागते हैं, निर्दयता स्वीकार करते हैं तथा मनमें क्रोध धारण करते हैं; जो दूसरेको ठगनेमें लगे रहते हैं, दुर्मुख, अनिष्टकारी, खल, आततायी, पापी सौर दुष्ट हैं; जो ( दूसरेके ) ग्राम, क्षेत्र या घरमें घुसते हैं और गुरु, देव तथा साधुके धनका अपहरण करते हैं; जो न्यायालयोंमें झूठी गवाही देते हैं तथा दूसरेके धनको झगड़ा करके हड़प जाते हैं वे मनुष्य, आपको कैसे समझाया जाए, पानीमें डाला हुआ पत्थर जैसे नीचेकी ओर जाता है वैसे ही नरकमें जाते हैं। परस्त्री और परद्रव्यका सेवन करनेवालेको वहाँ निरन्तर दुख होता है तथा छह प्रकारके जीवोंकी हिंसा करनेवाले जीवको अलंघनीय नरक दुख मिलता है । ॥२॥ तिर्यग्गतिके जीवोंका विवरण अब मैं तिर्यग्गतिके बारेमें बतलाता हूँ। हे नराधिप, उसपर मैंने विचार किया है। एकेंद्रिय ( जीव ) के पाँच प्रकारके भेद होते हैं। विकलेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय अनेक प्रकारके होते हैं। पृथिवी ( कायिक ), जल ( कायिक ), अग्नि ( कायिक), वनस्पति (कायिक) तथा वायु ( कायिक ) ये एकेन्द्रियोंके पाँच (प्रकार ) कहे गये हैं। घोंघा, सीपी, कृमि, कुक्षि, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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