SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 386
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुवाद [१ हो गया; क्या पहिले निर्दिष्ट किए गये तप ( का फल ) समाप्त हो गया; क्या मेरा और क्या किसी दूसरेका भोगसे रहित होना है अथवा क्या च्यवनकाल आ गया है ? जब वह स्वयंमें लीन होकर विचार कर रहा था तब उसने विभंग ज्ञानकी उत्पत्ति की । ( उसके द्वारा ) जो जिसने पूर्व जन्ममें किया था वह सब विपरीत ज्ञात होता है। उस भीषण-दृष्टि और भयानक ( असुर ) ने उस ज्ञानके द्वारा एक ही क्षणमें देखा कि उसने पूर्व ( जन्म ) में मरुभूतिके प्रति महिला तथा महिके हेतु विरोधी कार्य किया था तब मैं दोषपूर्ण पंच-परम्पराके द्वारा ठगा गया था। उसी समयसे लेकर मैं ( मरुभूतिका ) वैरी हुआ हूँ; फलतः मैंने अनेक दुःखोंका अनुभव और पापोंका बन्ध किया है। अब मैंने इसे यहाँ उपस्थित देखा है। यह दुष्कर्ता अब जीवित नहीं बचेगा। यदि यह पातालमें या किसी विशेष भुवनमें प्रवेश करता है या अन्य कहीं छिपता है तो भी यह भूमिपर उपस्थित और तप करता हुआ शत्रु अब जीवित रहते हुए बचकर नहीं निकालेगा ॥६॥ पार्श्वके अंग-रक्षकका असुरको समझानेका प्रयत्न उस विकराल मुखवालेने अपना मुख थपथपाया और जिनेन्द्रके पास पहुँचा । इन्द्र की आज्ञासे वहाँ जिनवरकी अंगरक्षाके लिए एक यक्ष रहता था । उसका नाम सौमनस था। उसने आते हुए असुरेन्द्रसे कहा कि "तुम्हारा उपसर्ग करना युक्त नहीं । ये तीर्थकर देव तीनों लोकोंके स्वामी, आगम और अनन्त गुणरूपी जलके प्रवाह, कल्याणरूपी महान् सरोवरके परम हंस, जयलक्ष्मीरूपी पर्वतके ऊँचे बाँस, कन्दर्परूपी मल्लके बलको नष्ट करनेमें समर्थ शरीरवाले, विषयरूपी अग्निसमूहपर बरसते हुए मेघ, शाश्वत तथा कल्याणकारी सुखमें स्थान प्राप्त तथा सचराचर जगके प्रमाणके ज्ञाता हैं। इनके शरीरको देवाधिदेव प्रणाम करते हैं, इन्होंने भयके समूहका नाश किया तथा ये तीनों लोकोंमें उत्कृष्ट बीर हैं।" "जिनभगवानको प्रणाम करनेवाले तथा उनके गुणोंका स्मरण करनेवालेको अनन्त पुण्यफलकी प्राप्त होती है। उसके संसार (के दुःखों ) का नाश हो जाता है, वह सुख पाता है तथा उसके शरीरके पापोंका दोष समाप्त हो जाता है ॥७॥" उपसर्गके दुष्परिणाम "हे मूढ, उपसर्ग करनेवालेको जो प्रगट और गूढ़ दोष प्राप्त होते हैं उन्हें सुन । अपनी मतिकी शक्तिके अनुसार प्रारब्ध कार्यका सम्बन्ध समान फलसे नहीं जुटता; उसका बल, तेज शक्ति, शौर्य तथा मान ये सब जनोंमें अन्यन्त हास पाते है। दूसरे पुरुषोंके बीच उपहास होता है तथा असाध्य ( उपसर्ग) की उपशान्तिके बाद जिस कार्यमें सामान्य पुरुष सिद्धि पाते हैं उसीमें विद्वानोंको असफलता प्राप्त होती है। जो गूढ़ दोष हैं उन्हें मैंने तुझे बताए । अब प्रगट दोष बताता हूँ, उन्हें सुन, चित्तमें संशय मत कर। उस ( उपसर्गकर्ता )से पहले चक्रवर्ती रुष्ट होता है फिर तारागण और देवसमूह । जिस एक ही कार्यसे सुर और असुर सब विरुद्ध हो जाएँ उससे क्या प्रयोजन ? दूसरी बात यह है कि जिनदेव अनुपम शक्तिशाली हैं। इस जगको तृण समान मानते हैं। पार्श्वके शरीरको आघात पहुँचाने तथा उनका वध करनेमें इस जगमें कौन समर्थ है ? जो सर्व-ज्ञात रेणु-कण है उसके बराबर भी यदि ( उनके शरीरसे कुछ ) गलित हो तो उसके लिए भी तू असमर्थ है ।।८॥ - असुर द्वारा अंग-रक्षककी भर्त्सना तेजस्वी-मुख तथा लाल नेत्रवाले उस असुरने सौमनसके वचन सुनकर कहा-"रे सौमनस, अज्ञानी यक्ष, तूने कुटिल और असंगत सब कुछ कह डाला । क्या जगमें कोई राग-रहित है ? क्या कोई देव विषादसे परे है ? क्या कोई भुवनपति दर्पहीन है ? क्या कोई शील और गुणोंके समूहसे युक्त है ? क्या कोई रोष और तोषसे रहित है ? क्या कोई मोक्ष-मार्गमें लीन रहता है ? रे यक्ष, क्या कोई कषाय-विहीन है ? जो-जो तूने कहा है वह सब मिथ्या था। बिना गुणोंके जो प्रशंसा करते हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy