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________________ चौदहवों सन्धि त्रिभुवनकी लक्ष्मीके निवासस्थान, अक्षय ( पदको ) व्यक्त करनेवाले, कामदेव रूपी गजके लिए मृगेन्द्र, कमठ नामक महान् असुरपर जय पानेवाले तथा मोहका निवारण करनेवाले पार्श्व जिनेन्द्र ( की कथा) को सुनो। पार्श्वका तप और संयम पार्श्वनाथ तेईसवें जिनवर हैं। वे परिहार-शुद्धि संयम धारण किये थे तथा तीन दण्ड, तीन शल्य और तीन दोषोंसे रहित थे। उनका शरीर एक हजार आठ लक्षणोंसे युक्त था। वे चार संज्ञाओंसे मुक्त थे तथा तीन गुप्तियोंसे गुप्त थे। वे एक हजार अट्ठारह शीलोंसे समन्वित थे। उनका शरीर सम्यक्त्व-रत्नसे विभूषित था। वे क्षोभ और मोहसे रहित तथा अनन्त वीर थे। बाईस परीषहोंको सहना उनका स्वभाव था। सोलह कषायोंको उन्होंने सहज ही उखाड़ फेंका था। वे काम रूपी गजके लिए प्रचण्ड सिंह तथा प्रचुर कर्म-रूपी पर्वतके लिए वज्र थे । वे चार ज्ञानोंसे विभूषित तथा क्रोधसे रहित थे। वे दोषहीन थे, भट्टारक थे और मोह हीन थे । वे सरित, खेड, नगर, कर्बट प्रदेश, द्रोणामुह, चत्वर, ग्राम, देश, उद्यान, विचित्र घोष समूह, उत्कृष्ट तथा रम्य पर्वत तथा अन्य पवित्र स्थानोंमें विहार करते हुए क्रमसे भीमाटवी नामक विशाल वनमें पहुंचे। वह सघन वृक्षोंसे रमणीक और आच्छादित था, भीषण था और उसमें संचार करना कठिन था। वह अनेक वन्य पशुओंसे व्याप्त और पक्षियोंके समूहोंसे भरा-पूरा था, दुस्सह था और दुष्प्रवेश्य था ॥१॥ भीमावटी नामक वनका वर्णन । उसमें ताल, तमाल, विशाल बड़हल (लकुच), जामुन (जम्बू), कदम्ब, पलास, कउह (?), धौ (धव), धामन, तेंदू, खैर (खदिर), कुन्द, कन्हैर (कर्णिकार), निम्ब, जासौन, सुन्द, पाटल, मेंहदी (प्रियंगु), पुंनाग, नाग, कुंकुम जो तीनों संध्याओंमें अत्यन्त छायायुक्त रहता है, कंचन, कलिंग, करवीर, तरव, कंदोट्ट, तिमिर, जम्बीर, कुरबक, ईख (पुंडच्छ ), मिरिय, केतक, लवंग, खजूर (खजूर), फनस, महुआ (मधु), मातुलिंग, बबूल (वंब्वूल), जाति, इन्दोक्ख, सुपाड़ी (पूअप्फल), शीशम (सिंसव), धातकी (धाई ) का समूह, अंकोल्ल, बिल्व, श्रीखण्ड, मदन, तिरिविच्छि, बकुल, गंगेरी (?), यमुन (?), पालिन्दु, वडोहर, कचनार, कोरंट्ट, बील, तरलसार, चिरहौल, बदरी, कंथारि, वंश, सल्लकी, वट, अरलुअ (?), वाण, फरिस, वोक्कण्ण, कन्हैर (कणीरु), दक्ख (द्राक्षा), सुरतरु, असंख्य और उत्कृष्ट मुनि-तरु आदि इस प्रकारके पृथिवीपर प्रसिद्ध, नाना प्रकारके तथा फलोंसे र पर वहाँ, यदि खोजा जाए तो भी, एक ( तरु) नहीं दिखाई देता। वह स्वर्गमें उत्पन्न होता है, तरुओंमें श्रेष्ठ है, देवोंको प्रिय है तथा सब सुगन्धोंसे परिपूर्ण पारिजात है ॥२॥ पार्श्वकी ध्यानावस्था वहाँ एक पवित्र भू-भाग देखकर वह ( पार्श्व ) दोषोंसे रहित हो कायोत्सर्ग स्थितिमें स्थित हुआ। वह मुनीन्द्र मनमें ध्यानाग्निसे पूर्ण तथा गिरिके समान अविचल हो गया। वह, जिसके करतल विस्तृत थे, जो ध्यानमें दक्ष था, जिसने नासिकाके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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