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________________ पार्श्वनाथचरित [१३, ११ ७] होता । वे घर-द्वारके मोहमें कैसे उलझ सकते हैं ?" इस प्रकारसे मन्त्रियोंने जब उसको सम्बोधित किया तब उसने चित्तके सब विषादको दूर किया । पार्श्व कुमारके वियोग में पौरुष और मान-रहित होकर दुखी हयसेन उस पशुके समान हो गया जिसके सींग टूट गये हों ॥ १८ ॥ १९ दीक्षा - समाचार से वामादेवीको शोक तबः दुखी मनसे रविकीर्ति-नृप वामादेवी के पास पहुँचा । उसके दोनों चरणों में सिरसे प्रणाम कर उसने बहिन से कोमल स्वरमें यह कहा –“परमेश्वरि, मैं अत्यन्त पापी और निर्लज्ज हूँ, जो आज मैं यहाँ बिना पार्श्व के आया हूँ । तुम्ह कुमार अपनी भुजाओंसे यवनको बन्दी बनाकर, मुझे निष्कण्टक राज्य देकर तथा समस्त राज्यभारका त्याग कर जिन दीक्षा में प्रस्तुत हुआ है ।” जब रविकीर्ति-नृप यह वार्ता बता रहा था तभी वामादेवी मूच्छित हो गईं। उनपर जब गोशीर्ष चन्दन ( युक्तजल ) के छींटे दिये गये तो वे एक ही क्षणमें चेतना प्राप्त कर उठ बैठीं । तब अपने जीवनकी तृणके समान अवहेलना कर वे करुणापूर्वक रुदन करने लगी- “हे दुष्ट, इस दुस्सह वियोगको देकर तू कुशल मुझे छोड़ कहाँ चला गया ? तेरे विरह में मुझे कोई आशा नहीं है । हा सुभट ! हा घीर ! हा पार्श्व ! तू कहाँ गया । तेरे विरहमें मेरे इस जीवनसे क्या ( लाभ ) ? इसके कारण धन और राज्य निष्फल हैं ।" " यवनराजका नाश करनेवाले हे सुभट ! हे धुरन्धर ! हे धीर ! वचन दो" ॥१९॥ जगगुरु ! हे चरम शरीर ! तुम अभी मुझे २० वामदेवीको मन्त्रियों का उपदेश जब वामादेवी परिजनों के साथ इस प्रकार रुदन कर रही थीं तब मन्त्रियोंने हितकी दृष्टिसे यह कहा - "हे भट्टारिके रोना छोड़ो, शोकको त्यागो और हमारे वचनों को सुनो। हे स्वामिनी, तुम्हारा पुत्र धन्य है, पुण्यवान् है तथा पूरे त्रिभुवनमें महान् है जिसने तुम्हारे गर्भसे उत्पन्न होकर यह असाध्य तप अंगीकार किया है । जिस पार्श्वको देव और असुर तथा पुरुष और नाग प्रणाम करते हैं, जो समस्त आगमों, कलाओं और गुणोंका ज्ञाता है तथा जिसके सामीप्यको देव क्षण भरके लिए भी नहीं छोड़ते, वह इस संसार से कैसे अनुराग कर सकता है ? वह तीर्थंकर देव क्रोधसे रहित है तथा उत्तम अवधिज्ञान से समन्वित है । वह लक्ष्मीका निवासस्थान भरत क्षेत्रमें उत्पन्न हुआ । उसका घर-द्वारसे क्या सम्बन्ध हो सकता है ?" आगमों और पुराणोंकी अनेक कथाओंसे उन्होंने वामादेवी को समझाया और बताया कि हे स्वामिनी, थोड़े समयमें ही तुम्हारी अपने पुत्र से भेंट होगी । वह ज्ञानी जब विहार करेगा तब निश्चित रूपसे यहाँ आएगा । पद्मा द्वारा आलिंगित श्री रविकीर्ति-नृप वामादेवी को प्रणामकर कुशस्थल नगर वापिस लौट आया ॥ २० ॥ ॥ तेरहवीं सन्धि समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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