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________________ ७४] पार्श्वनाथचरित [१३,७ग्रहण कालमें किसी मठ या विशाल मन्दिरमें किये जाते पुण्योत्सवमें किया जाय। इन ( नक्षत्रों ) में जो गुरु, बुध और शुक्र ये तीन वार आये उन्हें छोड़ शेष ( वार ) दोष-युक्त हैं । चन्द्रवार तथा रविवारको और मंगलसे मरण होता है । रविवारसे भोजनकी प्राप्ति नहीं होती । शनिसे पुंश्चलि, दुराचारिणी और अनिष्टकारिणी होती है तथा दिखाई देनेपर अपने प्रियको प्रिय नहीं लगती। कोई-कोई शनिवारको विवाह करते हैं। वे उसे स्थिरवार कहकर कोई दोष नहीं मानते।" “रवि, गुरु और चन्द्र जब अशुद्ध हों तो पाणिग्रहण नहीं किया जाता। गुरु और शुक्रके अस्त रहनेपर भी दीक्षा और विवाह योग्य नहीं है" ॥६॥ । ग्रहों और नक्षत्रोंका विवाहपर फल __ "रवि, राहु, मंगल और शनिसे विद्ध नक्षत्र हो तो उस पक्षमें विवाह नहीं होता। आलिंगित, धूमित, मुक्त तथा सूर्यसे दग्ध नक्षत्रोंका दूरसे त्याग किया जाता है। ग्रहसे लतिआया गया, छादित, वेधयुक्त, सन्ध्यागत और अस्तंगत तथा जिसमें पापग्रह राहु और केतु हों, उस नक्षत्रका साधु पुरुष सर्वथा परित्याग करते हैं । नक्षत्रों की इस प्रकार शुद्धि प्राप्त कर दसों योगोंकी भी शुद्धि कर लेना चाहिए । वर और कन्याकी आयुकी गणना कर तथा त्रिकोण और षष्टाष्टक दोषोंका त्याग कर तुला, मिथुन और कन्या (राशियोंमें ) उत्तम विवाह होता है । धनको अर्धलग्न कहा गया है। यदि कुण्डलीमें ग्रह शुभ होते हैं जो ज्योतिषी सब योगोंको ध्यानमें रखते हैं किन्तु तीनको छोड़कर अन्यमें दोष नहीं मानते तथा केवल यही विशेषता मानते हैं कि अधिक ( दोष) को छोड़ना चाहिए।" "हे नराधिप, अब विवाहकी जो लग्न होनी चाहिए तथ लिक मुनियोंने बताई है उसे मैं संक्षेपमें बताता हूँ। उसे सुनिए ।"॥७॥ ग्रहोंका भिन्न-भिन्न गृहोंमें फल "रवि, राहु, भौम, शनि और चन्द्र ये पापग्रह हैं । शेष सौम्य ग्रह हैं अतः दोष रहित हैं। चन्द्र ग्रहको कोई सौम्य ग्रह कहते हैं और अन्य उसे पापग्रह कहते हैं और उसका त्याग करते हैं। ( उक्त ) पाँचों पापग्रह ऋद्धिका नाश करते हैं किन्तु सौम्य ग्रह मुक्तिकी सिद्धि करते हैं। चन्द्रको छोड़कर शेष पापग्रह दोषपूर्ण होते हैं। सौम्य ग्रह यदि धनस्थानमें हों तो सुख उत्पन्न करते हैं। तीसरे गृहमें स्थित राहु आयु क्षीण करता है। बाकीके जो ग्रह हैं वे सुख उत्पन्न करते हैं। चौथे गृहमें स्थित सौम्यग्रह लाभदायी होते हैं किन्तु चन्द्रमा-सहित पापग्रह कष्ट देते हैं। पाँचवें स्थानमें पाँचों ( पापग्रह ) ही अशुभ हैं किन्तु तीन सौम्यग्रह (शुक्र, बुध और बृहस्पति) शुभ होते हैं। छठवें स्थानमें चन्द्र अत्यन्त दुखदायी होता है और शेष अत्यन्त सुखकर होते हैं । सातवेंमें आठों ग्रह निषिद्ध हैं; उसे जामित्र कहकर शास्त्रमें विरोधी बताया है। शनि, मंगल, राहु तथा रविको छोड़कर शेष ( पापग्रह ) कुंडलीके आठवें गृहमें दोषपूर्ण हैं । नौवें स्थानमें रवि और राहु कष्ट देते हैं किन्तु शेष सुखोत्पादक हैं । दसवें गृहमें आठों ही हानि पहुँचाते हैं; वे बालकके लिए दुखके भण्डार हैं । विवाह-कालमें, ग्यारहवेमें स्थित आठों ही ग्रह यश, धन और वस्त्र प्रदान करते हैं। बारहवें स्थानमें पाँचों अनिष्टकारी हैं किन्तु तीन सौम्यग्रह सबके द्वारा शुभ माने गये हैं। यदि बारहवें स्थानमें शनि होए तो ब्राह्मणी भी सुरापान ग्रहण करती है।" “यदि समस्त गुणोंसे युक्त लग्न किसी भी प्रकारसे न मिल रही हो तो गोधूलि वेलामें विवाह दोषहीन होता है ॥८॥ पार्श्वको नगरके बाहिर तापसोंकी उपस्थितिकी सूचना ज्योतिषीके द्वारा बताई गई अत्यन्त शुभ लग्न नृपके मनमें भा गई। वह प्रसन्न मुखसे तत्काल ही उस धवलगृहमें पहुँचा, जहाँ कुमार ठहरा था। उसे अपने हाथों में लेकर नरेन्द्र ने कहा-"तुम मेरी कन्याका पाणिग्रहण करो। मेरी यह बात Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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