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________________ पार्श्वनाथचरित [१०, १० सरोवरके समीप सेनाका पड़ाव वैरीरूपी समुद्रके सेनारूपी जलका शोषण करनेवाला ( कुमार ) देवघोष ( नामक ) उत्तम रथपर आरूढ़ हुआ । उसी अवसरपर समर-तूर्य बजाये गये जो शत्रुओंके दुर्दम भटोंके प्रतापके लिए सूर्यके समान थे। काहल बजाए गये और शंख फूंके गये । लाखों पटु, पटह और तूर्य भी बजाए गये । जगत्के स्वामीपर धवलवर्ण श्वेतातपत्र लगाया गया। विजय-पताका आरोपित की गई और चिह्न बाँधे गये । विशुद्ध लक्षणयुक्त गजोंको सजाया गया । सेनामें कलकल-ध्वनि गूंज उठी। नगाड़ा बजाया गया। ( उससे ) भयभीत और कातर योद्धा निश्चेष्ट हो गये । वीर पुरुष रोमाञ्चित हो मार्गमें आगे बढ़े मानो मदमत्त गज रणमें विचरण कर रहे हों । चारणजन जगत्स्वामीके गुणोंकी स्तुति करते हुए तथा 'जिओ' 'जिओ' कहते हुए मागमें जल्दी-जल्दी चलने लगे। जब कुमार सेना सहित जा रहा था तब सूर्य अस्ताचलगामी हुआ। विमल जलयुक्त सरोवर देखकर पार्वने सब सेनाको ठहराया। सहस्रों सामन्तों सहित तथा समस्त आभूषणोंसे विभूषित वह ऐसी शोभाको प्राप्त हुआ मानो मानसरोवरपर इन्द्रने पड़ाव डाला हो ॥७॥ सूर्यास्तका वर्णन इसी समय रवि अस्तंगत हुआ। वह आकाशमें विशाल किरण-समूहसे रहित हुआ, अथवा आपत्तिकालमें जो अपने अंगसे उत्पन्न हुए हैं वे भी त्याग देते हैं, सहायक नहीं होते दिनकरका जो वर्ण उदयकालमें था वही अस्त होते, समय भी था; य वर्ण नहीं. अथवा जो उच्चकलमें उत्पन्न हए हैं वे आपत्ति और विपत्तिमें समान-रूप रहते हैं। अस्त होते समय सूर्य मानो कह रहा हो कि हे मनुष्यो, मोह मत करो, मैं तुम्हें रहस्य बताता हूँ। मैं इस पूरे जगत्को प्रकाशित करता हूँ, अन्धकारके पटलको दूर करनेमें समर्थ हूँ। सुर और असुर दिन-प्रतिदिन मुझे नमस्कार करते हैं। तो भी मेरी तीन अवस्थाएँ होती हैं । मेरा उदय होता है, उत्कर्ष होता है तथा दुःखका कारण-स्थान अवसान भी होता है। तो फिर जहाँ अध्रुवकी परम्परा और सहस्रों दःख हैं वहाँ अन्य लोगोंको क्या आशा हो सकती है? दिनकर अस्त होनेका सोच नहीं करता किन्तु मनुष्यों और देवोंको ज्ञान देता है । अथवा स्वतः आपद्ग्रस्त होते हुए भी ( दूसरोंका ) उपकार करना यही महान् व्यक्तियोंका स्वभाव है ।।८॥ सन्ध्याका वर्णन सूर्यके अस्त होनेपर निशा और दिवसके बीच नभमें स्वच्छन्द संध्या आई। निर्मल, स्निग्ध तथा प्रभूत रंगोंसे रञ्जित एवं आताम्र बिम्बसे मंडित छविवाली, किंशुक और प्रवालके समान शोभायुक्त, सिन्दूर-पुञ्जके अनुरूप देहवाली, ईषद्रक्त-मुख तथा प्रियके विरहसे युक्त वह सन्ध्या दिवाकरके पश्चात् उपस्थित हुई। समस्त तीनों लोकोंका अन्त पाकर समय-शोभित रवि सन्ध्याके साथ चला गया, अथवा जो महान् पुरुष लज्जालु होते हैं वे कार्य पूरा कर लेनेपर ही महिलाके साथ रमण करते हैं। दिशाओंका प्रकाशक दिनकर दूर चला गया तथा सन्ध्या भी उसी मार्गसे उसके पीछे-पीछे चली, अथवा शरदकालीन मेघके समान (चञ्चल ) रूप धारण करनेवाली नारी मनुप्यके पास किस प्रकारसे जा सकती है ? दिवसके अन्तमें एक दूसरेपर आसक्त सन्ध्या और दिवाकर दोनों ही अस्तकालमें, जैसे कहीं अवसर प्राप्त हों, गगनमें अनुरक्त हुए ॥९॥ रात्रिका वर्णन दिवाकरके किरण-समूहके अदृश्य हो चुकनेपर अनन्त आकाशमें निशाकरके साथ निशा आई। उसका वर्ण कज्जल और तमाल ( वृक्षोंके ) समान था। उसने दसों दिशाओं में निबिड अन्धकार फैला दिया। वह (निशा) अन्धकारके इस आव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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