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________________ ८, २२] अनुवाद [४७ ऊँचे वृक्षोंको नहलाता हुआ वह जल चारों दिशाओंमें प्रवाहित हुआ। उस समय देवोंने जिन-भगवानका जो अभिषेक किया उसका वर्णन करने में कौन व्यक्ति समर्थ है ? वहाँ देवोंने जिन भगवानको उसी तरह नहलाया जिस तरह अवसर्पिणीके प्रारम्भमें ऋषभदेवको नहलाया गया था । पांडुशिलापर स्नान कराये गये तथा क्षीरोदधिके जलसे धवल और उज्वल परमेश्वर जिनेश्वर देव गतिमान और कलाओंसे कान्तिमान चन्द्र के समान शोभाको प्राप्त हुए ॥१९॥ जन्माभिषेकके उत्सवका वर्णन किसी स्थानमें सुन्दर पुरन्दर नभमें खड़े थे। किसी स्थानमें एक दूसरेके प्रति ईर्ष्यालु अप्सराएँ थीं। किसी स्थानमें जिनोत्सवमें निरन्तर भाग लेनेवाले व्यन्तर (देव) थे। किसी स्थानमें अच्छे स्वरमें गानेवाले किन्नर थे। किसी स्थानमें सुन्दर फूलमालाओंसे भूषित ( कोई ) नाच रहा था । किसी स्थानमें ताँसे, भेरी और मृदंग बज रहे थे। किसी स्थानमें पन्नव पञ्चवर्णके किये जाकर सुशोभित हो रहे थे। किसी स्थान में दुग्गिय विशाल हारसे शोभित थी। कहीं सुरङ्गज ( देवकुमार ) अत्यन्त सजेधजे खड़े थे। किसी स्थानमें भवनवासी देव नभमें स्थित थे। किसी स्थानपर तारा (आदि ज्योतिष्क देव ) अत्यन्त सुन्दर दिखाई देते थे। किसी स्थानपर एकत्रित सुर-असुर आतुर हो रहे थे। किसी स्थानमें महायशधारी सुरेन्द्र मेरुके मस्तकपर नाच रहे थे तथा सबके सब अपनी विशेषताके साथ (जिनेन्द्रको) जगतका स्वामी कहकर विनय प्रदर्शित कर रहे थे ॥२०॥ तीर्थकरका कर्णच्छेदन तथा नामकरण मङ्गलवाद्यकी ध्वनिके साथ विधिपूर्वक भरे गये अत्यन्त विशाल तथा निरन्तर लाये और क्षीर समुद्रको पुनः ले जाये गये मंगल कलशोंसे सुर तथा असुरों द्वारा वन्दित जिनेन्द्रका अभिषेक किया गया। इससे भव्य महाजन मनमें आनन्दित हुए । जिनदेवकी संगतिमें क्षीर समुद्रके जलसे पर्वतका भी स्नान हुआ। अथवा उत्तम (जनों) की संगतिसे किसकी उन्नति और प्रभुता ( की वृद्धि ) नहीं होती ? गिरि-कन्दराओंमें जो पानी आया उसे पशओंने पिया (आस्वादन किया )। वे जीव भी धन्य और कृतार्थ हुए तथा गुणवान् , पापरहित एवं दयावान् बने । जिन्होंने जिनेन्द्रको अभिषेकके समय सिंहासनपर बैठे देखा उनका सम्यक्त्व परम अविचल, दोषरहित और गुणोंसे निर्मल हुआ। उस अवसरपर शत्रुका दमन करनेवाले इन्द्रने वज्रसूचीको लेकर लक्ष्मीधारी. जगतके स्वामीको हाथोंमें धारणकर ( उनके) दोनों कानोंको छेद दिया ॥२१॥ तीर्थकरकी स्तुति जगत्के स्वामीके दोनों कानोंमें कुण्डल, वक्षस्थलपर हार, दोनों हाथोंमें कंकण और कमरमें कटिसूत्र पहिनाया गया, सुन्दर तिलक लगाया गया तथा मस्तकपर उज्वल मुकुट रखा गया। इसी समय वज्रधारी सुरपतिने जिनेन्द्रकी जय-जयकारकी"हे परमेश्वर, हे भुवनके स्वामी आपकी जय हो। हे जिनेश्वर, आप क्षयरहित और अनादि तथा अनन्त हो। आप अनेक उत्तम और कल्याणकारी सुखोंके दाता हो। इन्द्रिय रूपी अत्यन्त चपल अश्वोंके नियन्ता हो। काम, क्रोध, मद और मोहका निवारण करनेवाले हो। पापरूपी अत्यन्त ऊँचे पर्वतका विदारण करनेवाले हो । विविध परीषहरूपी वैरियोंका दमन करनेवाले हो । कामरूपी महान् योधाको परास्त करनेवाले हो। भव्य जनरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिए सूर्य हो। अभय पदका दान करनेवाले और जगको पवित्र करनेवाले हो। चारों गतियोंका, कलिकालकी, कलुषताका तथा पापोंका नाश करनेवाले हो । आपका बल और ख्याति उत्तम तथा शिक्षा उत्कृष्ट है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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