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________________ ४०] पार्श्वनाथचरित [७, ११पूर्व जन्मके विरोधके कारण प्रतिकूल, मांसाहारका लोभी वह सिंह पृथ्वीपर घनके समान गर्जना कर उस मुनिके रुधिरका पान करने लगा ॥१०॥ __ कनकप्रभको स्वर्गकी प्राप्ति ध्यानयुक्त, परम आत्मा वे मुनिश्रेष्ठ मृत्युको प्राप्त होनेपर वैजयन्त नामक स्वर्गको गए। सब देवोंने णमोकारका स्मरण कर आदरपूर्वक उनका अभिनन्दन किया- "हे भव्योंमें श्रेष्ठ, शुभकर्मों के कर्ता, स्वर्ग और मोक्षकी ओर दृष्टि रखने वाले तथा सफल जन्मवाले आप इस स्वर्गमें क्रीड़ा कीजिए तथा सुख भोगिए तथा हमें भी आपके चरणोंकी सेवा करने दीजिए। पुण्यवान तथा पूर्णिमा के चन्द्र के समान कान्तियुक्त आप इस स्वर्गमें अवतरित हुए हैं। आपने स्थिर चित्तसे जिनदेवकी आराधना की थी। उसीका फल यह तत्काल पाया।" यह कहकर तथा सिरसे नमन कर देव उन्हें आभरणशालामें ले गए। वहाँ दमकते हुए मुकुट, मणि, कुंडल, केयूर और हारादि सभी अत्यन्त उज्ज्वल अलंकारों, वस्त्रों तथा प्रसाधन सामग्रीसे उन्हें विभूषित किया। उस श्रेष्ठ देवने सागर-पल्यकी अवधि तक सरलस्वभाववाले देवोंके साथ भिन्न-भिन्न विमानों में क्रीड़ा की ॥११॥ अनेक योनियों में उत्पन्न होनेके पश्चात् कमठका ब्राह्मण-कुलमें जन्म वह सिंह मुनिवरका वध कर तथा अपनी जीवनलीला समाप्त कर धूमप्रभ नामक नरकमें उत्पन्न हुआ। वहाँ से निकलकर पृथिवीपर सर्प हुआ फिर वह पापी चौथे नरकमें गया। तत्पश्चात् कालोदधि समुद्रमें गिरनेवाली तथा अपार जलवाली हंस नदीमें मछलीके रूपमें उत्पन्न हुआ। तदनन्तर दूसरे नरकमें गया तव पुनः समुद्रमें मत्स्य हुआ। वहाँ से वह प्रथम रौद्र नरकमें पहुँचा तथा अपार सागरमें विकराल मगर हुआ। फिर रत्नप्रभा नरकमें उत्पन्न हुआ उसके बाद केवट हुआ। इस अवस्थामें उसका शरीर कोढ़ व्याधिसे पीड़ित हुआ। कुछ काल बाद वह मृत्युको प्राप्त हुआ। इस सबके बाद वह दुष्ट ब्राह्मणके कुलमें उत्पन्न हुआ। उसने अपने जीवनमें अपने पिताको नहीं देखा। जन्मके समय ही उसकी माताका देहान्त हो गया फिर भी उस बालकके जीवनका अन्त न हुआ। दयावान् मित्रों और स्वजनों द्वारा उस बालकका पालन किया गया । अत्यन्त आसक्तियोंके साथ ही साथ वह मित्थ्यात्वका भण्डार ( आयुमें ) बड़ा हुआ ॥१२॥ १३ कमठ द्वारा तापसोंके आश्रममें प्रवेश मरुभूतिके समयमें जो अनेक दोषों और कषायोंका निवास स्थान था तथा जिसका नाम (कमठ) था वही कमठ नाम लोगोंने इसका रखा। सत्य है कि कर्मका किसी भी प्रकारसे नाश नहीं होता। दारिद्रय और व्याधिसे उद्विग्न उसका चित्त उबरनेके योग्य नहीं था। मलिनमन, दुर्जन और मूर्ख वह एक ऋषि आश्रममें किसी तपस्वीके पास गया और वहाँ उसने वशिष्ठ नामक तापसको देखा। उसने विनयपूर्वक उसकी अभ्यर्थना की। उसने जिस दीक्षाको ग्रहण करनेके लिए कहा वह उसने अंगीकार की। तब उसने तपस्वियोंकी सारी शिक्षाको सीखा, तथा (सिरपर ) जटा समूह धारण किया, (हाथोंमें) अक्षसूत्र ग्रहण किया और बताए अनुसार शून्य पदका ध्यान करने लगा। उसने हाथों और कानोंमें रुद्राक्षमालाको स्थान दिया तथा गलेमें स्फटिक मणियोंकी कण्ठमाला पहिनी । वह घोर पंचाग्नि तप करता, कषायसे वन-फलोंका सेवन करता तथा उपदेशानुसार मधुनाभिमें स्थित आठ उत्तम पंखुड़ी वाले पदमकी पूजा करता था ॥१३॥ ॥ सातवीं संधि समाप्त ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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