SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 340
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६,१६] अनुवाद [३५ १४ कनकप्रभको यशोधर मुनिकी केवल ज्ञान-प्राप्तिकी सूचना अन्तःपुर ( की स्त्रियों ) से घिरे हुए उस नृपतिका समय इस प्रकारसे व्यतीत हो रहा था जैसा कि सौधर्म-ईशानके इन्द्रोंका व्यतीत होता है। अन्तःपुर ( की स्त्रियों ) से घिरा हुआ वह राजा स्वछन्दतापूर्वक सुख भोगता था। एक बार जब वह ऊँचे, विशाल, आकर्षक, धवल, श्रेष्ठ और यथेष्ट श्रीसम्पन्न प्रासादमें महिलाओंके साथ बैठा था तब उसे नभमें मनोहर शब्द सुनाई दिया । राजाने मन्त्रियोंसे पूछा कि नभमें यह सुरीला क्या बज रहा है ? तब हितैषी मन्त्रियोंने नमस्कार कर राजासे कहा- "इस नगरके बाहर यशोधर नामके एक बहुगुणी मुनिवर आये हुए हैं। तपसे तपाई हुई देहवाले योगी उन परम आत्माको ज्ञान उत्पन्न हुआ है। उनकी वंदना और भक्ति करने के लिए भक्तिमान् देव दुंदुभि बजाते आये हुए आए हैं । देवों, असुरों, मनुष्यों तथा उरगोंके समूहोंसे गम्भीर हुआ यह उन्हींकी दुन्दुभिका शब्द सुनाई देता है। मन्त्रियोंके वचनको सुनकर सन्तुष्ट और प्रफुल्लित वदन वह राजा सात पद चलकर तत्काल ही ( मुनिके) चरणों में गिरा ॥१४॥ कनकप्रभका मुनिके पास आगमन; मुनि द्वारा प्रकृतियों पर प्रकाश जिनवरके धर्मसे प्रभावित, सैकड़ों उत्तम पुरुषों द्वारा नमस्कृत और संसार भरमें प्रशंसित वह चक्रेश्वर वैभवसे उन केवलीके समीप गया। ___ वह पृथ्वीका स्वामी चक्रेश्वर सामन्तोंके साथ वैभवसे वहाँ पहुँचा । जाकर उसने, जिसे इन्द्र प्रणाम करते हैं तथा जो केवलियोंमें श्रेष्ठ हैं उन योगीश्वरको प्रणाम किया और निवेदन किया- "हे जिन ! हे परमेश्वर ! कलिमलका नाश करनेवाले भट्टारक ! मुझे आठों कोंके विषयमें बताइए । मूल प्रकृतियाँ कौन-सी कही जाती हैं तथा उत्तर प्रकृतियाँ किन्हें कहते हैं ?" यह सुनकर वे परम-आत्मा जिनेश्वर (प्रकृतियों के विषयमें ) सभी कुछ बताने लगे-"इस जगमें ज्ञानावरण पहिला कर्म है। दर्शनावरण दूसरा । वेदनीयको तीसरा मानो। चौथेको मोहनीय कहते हैं। पाँचवाँ आयुकर्म कहा जाता है। छठवेंको नाम (कर्म) कहते हैं । गोत्र कर्म सातवाँ माना गया है । आठवाँ अन्तराय कहलाता है।" ___"इन आठों कर्मोंसे मूल प्रकृतिको स्पष्ट रूपसे बताया। केवल इन्हींका पूर्वमें बंध होनेके कारण मनुष्य दुःखी होते हैं" ॥१५॥ उत्तर-प्रकृतियोंका निरूपण "ज्ञानावरण कर्म पाँच भेदोंके द्वारा मति, श्रुति, अवधि, विपुलमति और केवलज्ञान (इन पाँचों) को ढाँक लेता है।" "दर्शनावरण कर्म नौ प्रकारका है। वेदनीय दो प्रकारका माना गया है। मोहनीय कर्म अट्ठाईस प्रकृतियोंके विस्तार द्वारा विविध प्रकारसे अवस्थित है। आयु कर्मको चार प्रकारका जानो; नाम कर्म तेरानबे प्रकृतियोंवाला है। गोत्र कर्मकी दो प्रकृतियाँ हैं । अन्तराय पाँच प्रकारका कहा गया है । ( इस प्रकार ) सब उत्तर प्रकृतियाँ एक सौ अड़तालीस हैं। इन्हींका आस्रव होनेपर सुख और दुःखकी प्राप्ति होती है। इन्हींके कारण जीव नरकमें भ्रमण करता है तथा मिथ्यादर्शनमें प्रथमतः प्रविष्ट होता है । इन्हींसे यह स्थावर और जङ्गमयुक्त जग बँधा हुआ है और वह विषयों के आकर्षणसे लुब्ध हो भटकता फिरता है। इन प्रकृतियोंसे जो नर मोहित होता है वह दुःख पाता हुआ संसार में घूमता है। यह जीव अनादि कालसे ही आठ कर्मों द्वारा बंधा हुआ भटक रहा है।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy