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________________ ३४ ] पार्श्वनाथ चरित [ ६, १२ वह नरपति अन्तःपुर ( की स्त्रियों ) के साथ इस वैभवसे सरोवरको गया मानो इन्द्र हो । इन्द्रके हाथी ( की सूँड) के समान दीर्घं बाहुओंवाला वह युवतियों के साथ पानी में उतरा । वह राजा हथिनियों से घिरे ऐरावत के समान अवगाहन करने और जल उछालने लगा । उसने एक कोमल, सुगन्धित और केसरोंसे भरा हुआ कमलनाल उखाड़कर उससे किसी स्त्रीको स्नेहसे सिरपर मारा । तच दूसरी कहने लगी- "हे देव, मुझे मारिए ।" वह मृणाल लेकर जब उसे मारने लगा तब एक दूसरी वक्षस्थलपर आ गिरी | उसे भी जब वह जोरसे मारने लगा तब दूसरी तीव्र कटाक्षपात करने लगी। उसने डुबकी लगाकर किसी के पैरों को पकड़ लिया और ( किसीके ) दोनों हाथों को दुष्टता से ( अपने हाथोंसे ) बाँध लिया । चारों दिशाओंसे पीनस्तनी तथा अनुरक्तहृदय ( युवतियाँ ) राजापर जल उछालने लगीं । ( उसके ) शरीरपर लगी हुई कस्तूरी, चन्दन और केशर पानी से धुल गई । युवतियों द्वारा काजलसे भरे नयनों द्वारा, जैसे कहीं बादलों द्वारा, शुक्ल जल ( श्यामवर्ण कर दिया गया ) । नयनों के अंजन और कस्तूरीकी प्रभूत मात्रासे पूरा निर्मल जल अस्वच्छ कर दिया गया । वह विभिन्न रंगों से रंगविरंगा होकर इन्द्रधनुषके सदृश शोभाको प्राप्त हुआ ॥ ११ ॥ १२ वर्षाकालका वर्णन ऐश्वर्यसे सरोवरमें क्रीड़ाकर कामविह्वल पृथ्वीपति वह नृपति युवतियों के साथ स्वच्छन्दता से राजभवन लौट आया । ग्रीष्मके व्यतीत हो जानेपर मोरों और मेढ़कोंसे युक्त भयानक वर्षाकाल आया । नभमें विशाल घनरूपी हाथीको देखकर वर्षाकाल रूपी राजा उसपर सवार हुआ । नभोभाग को वज्रसे कूटते हुए उस दक्ष (नृप ) ने दुष्प्रेक्ष्य विद्युत्को ख बनाया । धरातलपर टप-टप-टपकता हुआ जल वायुके साथ बरसने लगा । गर्जना करते हुए प्रलयके घनोंके समान ध्वनिसे प्रचण्ड, विद्युत् - सा चंचल, भयंकर, भोषण और भयानक एवं काले तमाल-वनके समान श्यामल शरीरवाले द्रोणमेघने दशों दिशाओं में झड़ी लगा दी | मूसलाधार वृष्टिसे जल, थल और पाताल खूब भरकर शोभा देने लगे । रौद्र वर्षाकाल इस प्रकारसे आया मानो मेघों द्वारा समुद्र ही लाया गया हो । अनेक दीर्घिका, तड़ाक और सरोवर जलसे भरकर समान रूपसे प्रिय लगने लगे । नमके अनेक मेघों द्वारा आच्छादित होनेके कारण दिनसे रात्रि ( भिन्न ) नहीं जानी जाती । वर्षाकाल में ( अपनी ) प्रियाओं से विरहित यात्रियों के हृदयमें विरह नहीं समाता ॥१२॥ १३ शिशिर कालका वर्णन हिम और शीतसे दुस्सह, गरीबोंके मन और देहका शोषण करनेवाला, अत्यन्त दारुण और शीतल पवनसे भयंकर शिशिरकाल आया । सब दरिद्रीजनों को संताप पहुँचानेवाला, असुहावना शीतल पवन बहने लगा । शिशिरसे सब लोग संत्रस्त और रात-दिन अग्निकी सेवा करने लगे । कोई-कोई दरिद्री करोंको ही ( वस्त्रके समान छाती से ) लपेटकर रात बहुत कष्ट से व्यतीत करने लगे । यह शिशिर अत्यधिक भयंकर और पशुओं तथा मनुष्योंके दुःखों का कारण है । धन-धान्यसे समृद्ध, ओढ़न एवं खानपानसे युक्त, श्रीमान् तथा अनेक आभरणों और वस्त्रोंसे विभूषित पुण्यवानोंका शिशिरकाल आनन्दसे व्यतीत होता है । हिमसे भरे सरोवर आहतसे तथा शीतल पवनसे ताड़ित बड़े वृक्ष म्लानसे ( दिखाई देते हैं) । हिमसे आहत नलिनी शोभाहीन हो गई ओर सरोबरोंके अन्य उत्तम फूल तथा कमल काले पड़ गये । घास-पातके सूख जानेसे पेट न भरनेके कारण गाय-भैंसेंकि शरीर दुर्बल हो गये । धनवान् व्यक्ति भी शिशिरको बहुत दुःखसे बिताते हैं फिर सुखविहीन निर्धनों की क्या कथा ? दरिद्रियोंके लिए हेमन्तकाल अत्यन्त दुस्सह और भयानक है । वही खान, पान और ओढ़नसे सम्पन्न सुखी व्यक्तियों के लिए कुछ मात्रा में सुहावना है ॥ १३ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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