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________________ ६, ५ ] अनुवाद ३ कनकप्रभकी समृद्धिका वर्णन दोनों श्रेणियोंके विद्याधरोंका (स्वामी) वह चौदह रत्नों निधियों और उत्तम पुरों तथा नगरोंसे युक्त पृथ्वीका भोग [ ३१ करता था । उसके धन-धान्यसे सदा समृद्ध बत्तीस हजार प्रदेश, छियान्नबे करोड़ ग्राम, निन्यानबे हजार खानियाँ, सुवर्ण और चाँदी के तोरणोंसे युक्त चौरासी लाख श्रेष्ठपुर तथा चौरासी हजार कर्वट, सुखेट और द्रोणामुख थे । उसके मन और पवनकी गतिवाले अठारह करोड़ श्रेष्ठ घोड़े, गर्जन करनेवाले, मदसे विह्वल और मद बहानेवाले चौरासी लाख हाथी तथा समस्त शत्रुदलक नाश करनेवाले उतनी ही संख्याके उत्तम रथ थे। उस नरवरके चौरासी लाख वोर अंगरक्षक थे, तीन सौ साठ रसोइ थे तथा उबटन करनेवाले दो सौ थे । उसकी मन हरण करनेवाली तथा हृदयसे इच्छित छियान्नबे हजार स्त्रियाँ थीं तथा धान्यसे सदा भरपूर तीन करोड़ उत्तम किसान थे || ३॥ ४ कनकप्रभका विजय यात्रापर प्रस्थान बारह योजन मार्गको अवरुद्ध करनेवाला वह यशस्वी नराधिप शिविर तथा असंख्य हाथी, घोड़े और रथोंके साथ विजय (यात्रा) पर निकला । चतुरंगिणी सेना से घिरा हुआ वह राजा स्थिर मनसे नगरसे निकला । छह खण्डोंका वह दुर्दम और प्रचण्ड स्वामी पूरे आर्यखण्डको तथा पुरों और नगर-समूहों को वशमें करता हुआ जल्दी ही गंगा नदीके किनारे पहुँचा । श्रेष्ठ चर्मरत्नपर पूरी सेनाको चढ़ाकर उसने उस विशाल नदीकी गहरी धारको पार किया। तत्पश्चात् वह अन्य म्लेच्छ-खण्डों में गया और वहाँ उसने चारों दिशाओं में खूब भ्रमण किया । फिर वैताढ्य पर्वतकी गुहा के पास जाकर भूमिविवरसे उस नरपतिने उस पर्वतको पार किया । वहाँ मेघकुमारका मान-मर्दन कर, यक्षोंके प्रधानको अपने वशमें कर तथा नदीको पार कर वह म्लेच्छ-खण्डमें आया । वहाँ उसने मृत्युके वज्रदण्डके समान सञ्चार किया । वहाँ चक्रवर्तीके मानको भंग करनेवाला तथा गगन में सूर्यके रथको रोकनेवाला पर्वतराज था । इस पर्वत पर अन्य राजाओं ( के नाम ) के साथ जब वह अपना नाम लिखवाने लगा तब अन्य राजाओं के नामोंके कारण उसे स्थान ही प्राप्त नहीं हुआ ||४|| ५ कनकप्रभका दिग्विजय के पश्चात् अपने नगरमें आगमन चक्रवर्ती राजाओंके नामोंसे ( पूरे पर्वतको ) अंकित देखकर उस नृपश्रेष्ठका मान और गर्व जाता रहा और वह मध्यस्थ भावसे युक्त हो खड़ा रहा। "मेरे समान बलिष्ठ भुजाओंवाले (अन्य ) राजा भी हुए थे, जिन्होंने पृथ्वीके छहों खण्डोंको वशमें किया । वे बलशाली, शत्रुओं के लिए दुखदायी तथा दर्पसे उद्भट सुरों और असुरोंके भी विजेता थे। अब ( पर्वत ! ) तुम हमारे जैसेका नाम वहन करो। तुम कोई परमार्थ भावको नहीं जानते " । ऐसा कहकर उस विशाल सेना के नायकने लोहे की कीलसे दूसरे ( राजाओं ) के नाम पुछवाए । फिर वहाँ स्थायीरूपसे अपना नाम लिखवाकर वह नृप दूसरे राजाओंके साथ वहाँ से चला गया । दुर्दम म्लेच्छाधिपोंको वश में करता हुआ वह पाँचवें खण्डमें आया । वैताढ्य के पश्चिम-उत्तरसे गुहासे निकलकर वह सिंधुके पास पहुँचा । वहाँ छठवें खण्डमें म्लेच्छाधिपके समान अत्यन्त भयानक और क्षुद्र ( लोग ) निवास करते हैं । उन सबको थोड़े समय में ही अपने वशमें कर वह तत्काल ही अपने नगरको लौट आया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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