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________________ पार्श्वनाथचरित [ १,४परिमार्जन करती है । अथवा जिसकी जितनी काव्यशक्ति हैं, उतनी ही उसे लोकमें प्रकट करना चाहिए। यद्यपि व्याकरण ( से शुद्ध), देशी शब्दों और ( समुचित ) अर्थसे सघन, छन्दों और अलङ्कारोंसे प्रशस्त एवं प्रौढ़, अपने आगम और परकीय आगमों अपशब्दों से सर्वथा रहित इत्यादि अनेक लक्षणों युक्त काव्य कुशल कवियों द्वारा इस लोकमें रचे गये हैं, तो क्या उनसे शंकित होकर अन्य साधारण कवियोंको अपने भाव काव्य द्वारा प्रकट नहीं करना चाहिए ? यदि धवल और उत्तम सूंडवाला गजश्रेष्ठ ऐरावत मदोन्मत्त होकर मद छोड़ता है, तो क्या इस लोकमें अन्य बलशाली उत्तम गजों और अश्वोंका मदयुक्त होना योग्य नहीं है ? ॥३॥ खल-निंदा __इस लोकमें काव्यकारोंमें बिनाकारण दोष दिखलानेवाले खल उपस्थित रहते हैं। वे यमके समान जीभ वाले तथा देखने में भयंकर रूप होते हैं, मानो दूसरेकी त्रुटियाँ देखने के लिए ही उनका जन्म हुआ हो। वे दुष्ट ( उनके प्रति ) किए गए सुकृतको भी नहीं मानते। वे अपने मित्रों और स्वजनोंके लिए भी बड़े अनिष्टकारी होते हैं। वे खल, कुटिल, मायावी, दुस्सह और दःशील होते हैं जो अपनी प्रकृतिके स्वभावसे ही भ्रमरकी वृत्तिके (चंचल मति ) होते हैं। वे बालके अग्रभागके जाने योग्य छिद्रमें मूसल प्रविष्ट करते हैं। दूसरोंकी बात (किए ) बिना वे जीवित ही नहीं रह सकते । जो बात सुहृद जन कभी स्वप्नमें भी नहीं सोचते, वही बात ये दुष्ट जन हँसते हुए कह डालते हैं। ऐसे लोगोंसे मैं प्रार्थनापूर्वक कहता हूँ कि वे मेरे विषयमें ऐसा क्लेश न करें। अथवा ऐसे दुष्टोंकी अधिक अभ्यर्थना करने से क्या लाभ जब कि वे दूसरोंमें दोष निकालने वाले अपने स्वभावको कभी छोड़ ही नहीं सकते ? आकाशसे कांपते हुए जानेवाले पूर्णचन्द्रको क्या राहु छोड़ता है ? जलती हुई अग्निकी अभ्यर्थना करना अच्छा, किन्तु दो जीभ वाले दुष्टोंकी अभ्यर्थना युक्त नहीं। मुँहके मीठे किन्तु हृदय से अनिष्टकारी दुष्ट लोगोंका त्रिभुवनमें कोई अपना नहीं होता । चाहे उनको अपने शिरके ऊपर रखा जाए और उनका बहुत गुणानुवाद किया जाए तो भी वे न जाने कितनी बात करेंगे ही ॥४॥ मगध-देशका वर्णन खलोंको सर्वथा छोड़कर अब मैं यहाँ उस मगधदेशका वर्णन करता हूँ जहाँ साधारण लोग भी चोर और शत्रुओंसे भयमुक्त होकर सदैव विशाल सम्पत्ति सहित निवास करते थे; जहाँ उपवन कहीं भी नहीं समाते थे तथा फल-फूलोंके कारण झुककर पृथिवी पर स्थित थे; जहाँ चावलके खेत लहलहाते थे तथा गाती हुई बालिकाओं द्वारा रखाए जाते थे; जहाँ भौरे कमल समूहोंको छोड़कर किसानोंकी वधुओंके मुखोंके कपोलोंका सेवन करते थे; जहाँ विविध प्रकारके समस्त विद्वान् अपने-अपने देशोंको छोड़ आकर रहते थे तथा जहाँ देव भी स्वर्गसे च्युत होते समय यही भावना करते थे कि इसी मंडलमें हमारा जन्म हो । उस देशका क्या वर्णन किया जाए जहाँ सर्वकाल ही फसल तैयार होती रहती थी। उस मगधदेशमें पौरजनोंसे सम्पूर्ण, रिपुदलका नाश करनेवाला, त्रिभुवनमें प्रसिद्ध, धनसे समृद्ध और चार गोपुरोंसे सुरक्षित पोदनपुर नामका नगर था ॥५॥ पोदनपुरका वर्णन वह धवल एवं उज्वल नगर नयनोंको आनन्द देनेवाले, सोलह और अट्ठारह मंजिलोंवाले तथा पंचरंगी ध्वजाओंसे युक्त गृहों द्वारा शोभायमान था। प्राकार, शालाओं, मठों, जिनमन्दिरों, प्रणालियों, सड़कों और चार गोपुरों; चारों ओर ऊँचीऊंची दुकानों, आरामों और सीमावर्ती उपवनों तथा नदियों, कूपों, वापियों, वृक्षों एवं चौराहोंसे वह नगरी इन्द्रपुरीके समान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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