SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहिली सन्धि शिवपुरको प्राप्त करनेवाले चौवीस जिनवर भगवानोंको प्रतिदिन भावपूर्वक नमस्कार करके भुवनको प्रकाशित करनेवाले पार्श्वनाथ भगवानकी कथाको जनसमुदायके बीच सद्भावपूर्वक प्रकट करता हूँ। चौवीस तीर्थंकरोंकी स्तुति चौवीसों ही ( तीर्थंकर ) केवल ज्ञानरूपी देहको धारण करनेवाले हैं । चौवीसों ही कषाय और मोहको क्षीण करनेवाले हैं । चौवीसों ही कर्मरूपी नरेन्द्रको ( जीतने में ) मल्लके समान हैं। चौवीसों ही तीन प्रकारके शल्योंसे मुक्त हैं। चौवीसों ही अस्खलित व्रत और चारित्रवाले हैं। चौवीसों ही जरा और मृत्युसे रहित एवं पवित्र हैं। चौवीसों ही शाश्वत स्थानको प्राप्त हुए हैं। चौबीसों ही कलिमलरूपी कालुप्यसे रहित हैं। चौवीसों ही चार प्रकारके कर्मबन्धसे मुक्त हैं। चौवीसों ही चतुर्गतिरूपी कीचड़से दूर हैं । चौवीसों ही अविचल सुखकी प्राप्ति से महान् हैं। चौबीसों ही जगके लिए विशाल छत्र समान हैं। चौवीसों ही मोक्षमार्गको प्रकट करनेवाले हैं। चौवीसों ही भयका नाश करने के लिए समर्थ हैं। चौवीसों ही स्वभावतः अभयदानी हैं। चौवीसों ही संयमको सहज ही धारण करते हैं। चौबीसों ही जगका उद्धार करने के लिए स्तम्भ समान हैं। चौवीसोंने ही पांचों इन्द्रियोंका दमन किया है। चौवीसों ही मनुष्य और देवों द्वारा वंदित और जगमें अभिनन्दित हैं। वे जगतके परमेश्वर जिनेश्वर देव भव्यजनोंको मंगलरूप हों तथा भव-भवमें हमें निश्चल बोधि प्रदान करें ॥१॥ कविकी विनयोक्ति एक सौ अड़तालीस प्रकृतियों ( का शमनकर ) मोहको क्षीण करनेवाले, अत्यन्त बलवान मदन योद्धाको जीतनेवाले तथा भूत, भविष्य और और वर्तमानमें होनेवाले जो असंख्य जिनवर हैं उन्हें नमस्कार कर मैं एक ऐसी विशिष्ट महाकथाको कहता हूँ जिससे समस्त कलिमलका नाश होता है। इस संसारमें शब्द और अर्थमें दक्ष और गुणोंके भण्डार अनेक प्रकारके श्रेष्ठ कवि हैं । मैं तो मूर्ख हूँ। किसी भी शास्त्रका मुझे ज्ञान नहीं है। तो भी अपने (हृदयके भाव ) को भुवनमें प्रकाशित करनेके लिए उद्यत हुआ हूँ। यद्यपि मुझे आगमसे थोड़ा भी ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है, तथापि मैं आशा करता हूँ कि मेरे निषय-वर्णनका सम्बन्ध किसी अयोग्य बातसे न होगा। इसमें कोई बात शास्त्र-विरुद्ध न आवे और प्रस्तुत कीर्तन पूरा हो जावे । ( मेरी इस रचनासे ) सज्जन लोगोंका चित्त प्रसन्न हो तथा पार्श्व भगवानका यह शुद्ध चरित्र सर्वत्र व्याप्त हो । यह कथा संसारके लिए आकर्षक, त्रिभुवनमें श्रेष्ठ, मनुष्य और देवों द्वारा पूजित तथा गुणोंकी खानि है। इसका दुर्लभ यश जब तक महीतलपर सागर हैं तब तक भुवनमें प्रसारित होता रहे ।।२।। काव्य लिखनेकी प्रेरणा अथवा जिनवरनाथमें जो मेरी भक्ति है वही मेरी काव्यशक्तिको सुसज्जित करेगी। (सत्कार्यमें) जो दैविक या मानुषिक विन्न होते हैं उन सबको वही मेरी भक्ति विघ्न-रहित करेगी। वही भक्ति मुझे ऐसी विमल बुद्धि देगी जो सकल दोषोंका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy