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________________ व्याकरण । १. ४. ६, पइट्ठ (प्रविष्ठ) १. २०. ३ (साथ में पविट्ठ भी १. १३. १०) भीमाडइ (भीमाटवि) ५. ८. ४ ( साथ में अडवि भी १०. १२. ५) पुहइ ( पुहवि-पृथिवी ) १. ७. १०, गोइव्वउ ( गोविव्वउ-गोपितव्यम् ) १. १५. ७, सोइ ( सोवि-सोऽपि ) १६. १४. १, कइत्त ( कवित्व) १८. १२. ८ आदि । (३) उ के पूर्व-कर्ता एकवचन विभक्ति के उ के पूर्व सर्वत्र व का लोप हुआ है यथा- सहाउ ( सहाव+उ) १.१०. ७; माहउ (माहव+उ) ५.१.११; कामदेउ (कामदेव+उ) ५.१.१२, पायउ (पादव+उ) १४. १४. १३, आहउ (आहव-- उ ) ११. ३.१८, साउ ( साव-उ) १४. ९. ६, आदि । पूरे ग्रन्थ में माणुवु ३. ३. ९ ही एक मात्र उदाहरण है जहां इस उ के पूर्व 'व' का लोप नहीं हुआ। (४) कुछ शब्दों में दो स्वरों के मध्य के म के स्थान पर आए व का भी लोप 'अ', 'इ' तथा 'उ' के पूर्व हुआ है-यथा-णाउ (णाव+उ) १.८.१, पगाउ (पगाव-उ) ५. ३. ४, थाउ (भाव-थाम+उ) १.८.१; जउणा (यमुना ९. ९.२; रणउह (रणमुख) ९. १३.१; विक्कर (विक्रम+उ) १०. ३.१०; पचउ ( पचव+उ) १४. १४. ६; सुसीउ (सुसीम+उ) १६. १०. ५. । (५) 'व' के लोप करने की प्रवृत्ति के विपरीत लुप्त व्यंजनों के स्थान में व को लानेकी प्रवृत्ति भी जब कब दिखाई देती है- यथा- सहोवर (सहोदर) १. १७. १०, भुव (भुजा) २. ५. ११, हुववह (हुतवह) १. ४. १०, जुवल (युगल) २. १. ८, १७. ४. ८, हुवय (भूत+क) २.१.१, लाविय (लाइय) ८.२२. २, दूव (दूत) ११. ११. १३, तेंदुव (तिदुक ) १४. २. २, थोव ( स्तोक) १३. २०. १०; मणुव ( मनुज ) १४. १४. १२; सुव (शुक ) १४. १४. ५, थुव (स्तुत) १७. २३. १०; सेवाल (शृगाल) १८. ३. ७. आदि । (६) मूल या श्रुति से आए 'य' का लोप भी उन्ही परिस्थितियों में होता है जिनमें कि 'व' का; भेद केवल इतना है कि 'ए' के पूर्व 'व' का लोप नहीं होता 'य' का होता है तथा अ के पूर्व य का लोप करने का कोई अर्थ नहीं; न ही वह किया जाता है। भवियण ( भविक-जन ) में एक 'य' का लोप हुआ है यह- अक्षर लोप ( हेल्पालाजी ) का एक उदाहरण है। चारि (चयारि-चत्वारि ) में भी य का लोप हुआ है तथा अ+आ का एकीकरण कर दिया गया है। (ऊ) अनेक शब्दों में संयुक्त व्यंजन को साधारण में भी परिवर्तित किया है तथा उस कारण हुई मात्राओं की कर्ता को पूरा करने के लिए उसके पूर्व स्वर को दीर्घ किया है उदाहरण के लिए स्वरों के दीर्धीकरण अनुच्छेद का अ देखिए। (ए) कुछ शब्दों में संयुक्त व्यजनों के साधारण में परिवर्तन किए जाने पर उनके पूर्व स्वर को अनुनासित किया गया है यथा- इंछा (इच्छा) १०. १३. २, पुंछिय (पुच्छिय) ६. १४. ६, अंथवग (अस्तमन) १०. ७. ९, पयंपिय (प्रजल्पित ) १. १९. ९, रिंछ (रिच्छ ) १५. ४. ५, छिंकिय (छिक्किय ) १७, ६. ३, मंकुण ( मत्कुण ) १८. ३. ५.; मकोडा ( मक्कोडा ) १८. ३. ५, मिच्छंत (मिच्छत्त) १८. २०. १० चउरंस (चतुरस्र ) ८. १६. ६.; आदि । (ऐ) कुछ शब्द ऐसे भी हैं जहां संयुक्त का साधारण व्यंजन में परिवर्तन तो हुआ है किन्तु उसके पूर्व के स्वर को दीर्घ नहीं किया गया- यथा समुह ( सम्मुख) ४. १०. ६, पहिलय (पहिल्ल+य) ३. ७. ४, अखय (अक्षय) ६. ८. ७, कणियार (कर्णिकार ) १४. २. २, चयारि १५. ७. २ आदि । पारिखिय (पारीक्षिक) ६. ७. ११ शब्द की यह विशेषता है कि अपभ्रंश प्रवृत्ति के अनुसार संयुक्त व्यंजन के पूर्व की ई को हस्व किया है किंतु जब उस संयुक्त का साधारण व्यंजन में परिवर्तन हुआ तो उस 'इ' को अपने मूल रूप में भी नहीं लाया गया । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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