SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 113
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०४ प्रस्तावना यथा ओमग्ग (अवमार्ग) १४. २३. ६, ओलंबिय (अविलम्बित) १४. ३. ३ आदि । तइय (तदा) १. १८. ७ में 'आ' का विघटन 'इय' में हुआ है। [५] व्यंजन परिवर्तन ____ व्यंजनों में परिवर्तन हेमचन्द्र की व्याकरण के अनुसार हुए है । उनके दुहराने की आवश्यकता नहीं है। कुछ विशेष परिवर्तनों पर यहां विचार किया जा रहा है । (अ) हे. (१. १७७) के अनुसार स्वर के पश्चात् आए हुए असंयुक्त क, ग, च, ज तथा द का लोप होता है। । बहुधा पालन हुआ है किन्तु कुछ शब्दों में 'क' तथा 'ग' के संबंध में इसका पालन नहीं भी हुआ यथा - परिकर १. १५. ५, णवकार ७. ११. २, खयकारउ ८. ११. १०, सहसकर ९. १२. १०, जोग ३. १०, ११, णग ५.१२.८, जोगेसर ६.१४. ९, णागालय ८. ६. १२, वेग ९.१३. ७, भिगु १३. ३.६ आदि । कुछ शब्दों में हे (१.८२) का अनुसरण कर क का ग में परिवर्तन किया गया, उसका लोप नहीं यथामयगल १.२३.१०, उटग ६.१४. ११, णलिणागर ८. ९. ७, परिगर ९.१४.८, आगास १६. २. २, णरगुत्तार १८. १. १३ । इय नियम के अनुसार ही गेंदुव ९. ३. ६ का आदि अक्षर 'ग' 'क' के स्थान पर आया है ।। (आ) हे. (१.२०२) के अनुसार स्वर के पश्चात् आए हुए असंयुक्त 'ड' का ल में परिवर्तन हुआ है यथा -- तलाव (तडाक) १. ६. ५, (साथ में तडाव भी ६. १२.११), कील (कीड) १.१०.९, गुल (गुड) ३. १४. १०, विलंवण (विडम्बण) ४. ३. ११, फालिह (फाडिह-स्फाटिक) ७. १३. ९, सोलस (षोडश) ७. ६. ७ आदि पलीव (प्रदीप) २. ११. ९ में 'ल' 'द' के स्थान पर आया है (दे. हे. ८. १. २२१)। यही परिवर्तन दुवालस (द्वादश) में भी हुआ है । इसके विपरीत ल का र में परिवर्तन होने का उदाहरण किर (१२.१५.११) में प्राप्त है। (इ) यदा कदा स्वरों के बीच में आए हुए 'म' का 'व' में परिवर्तन हुआ है यथा-णाव (नाम) ६. ५. १, णवण (नमन) १.१३. ९, णव (नम) १.१७, ७, ३.१६. ४, णिक्खवण (निष्क्रमण) ३. १. ७, गवण (गमन) ७. ७. २, सवण (श्रमण) ४. ८.११, पयाव (प्रकाम) ५. ३. ४, णवकार (नमोकार ) ७. ११. २, णिविस (निमिष ) ९. ११. २, अंथवण (अस्तमन) १०. ७. ९, केव (केम) ९. ११. २, जेव ( जेम ) ११. १०. ८ आदि ( देखिए हे. ४. ३८७)। (ई) उक्त प्रवृत्ति के विपरीत प्रवृत्ति भी जब कब दृष्टिगोचर होती है जिसके अनुसार स्वरों के बीच में आए हए 'व' का 'म' में परिवर्तन हुआ है यथा सिमिर (शिविर ) ६. ४. १, पुंगम (पुंगव) १३. १५.११ । क प्रति में यह प्रवृत्ति अधिक रूप से पाई गई है। उसमें 'व' को 'म' में परिवर्तित करने की प्रवृत्ति उस स्थिति में भी दिखाई देती है जब कि वह व किसी अनुनासित पद के पश्चात् आया है यथा विहि मि (१. १२.६) केहि मि. ८. १८. ३; कहँ मि १४. १९. ६, पंचहँ मि ११. ८. १८. आदि। (उ) 'व' का लोप-मूल 'व' का लोप जब कब 'अ', 'इ' तथा अधिकतर उ के पश्चात् आने की स्थिति में हुआ है-- (१) अ के पूर्व यथा--रूअ (१. ४. २) ( साथ में रूव भी ३. ९. ८), भुअण १. ९. ५ ( साथ में भुवण भी १. २. १०), तिहुअण १. २. ९, दियह १. १३. ४ ( साथ में दिवह भी १. १०. १०), पयट्ट (प्रवृत्त ) १०. ५. ११, दइअ ( देव ) ५. ३. १० । (२)इ के पूर्व यथा-सुकइ (सुकवि) १. ९.३ (साथ में कवि भी १. ९.३) सुइण (सुविण-स्वप्न) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy