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________________ ९६ प्रस्तावना कविदर्पण (२.३१ ) में इसे घत्ता नाम दिया है तथा स्वयंभू छन्द ( ८-२३ ) में इसे हड्डनिका का एक प्रकार बताया गया है । (iii) जिनके पहिले और चौथे पादों में १२ तथा तीसरे और छठवें पादों में भी १२ तदनुसार प्रत्येक पंक्ति में ३२ मात्राएं हैं । इनके पादों की मात्रागणों की व्यवस्था प्रथम वर्ग की षट्पदी के तीसरे पाद के अनुसार है । पहिली संधि के ३, ५, ६, ८ से १६, १९ से २१ तथा २३, आठवीं संधि के २, ५ से ११, १३, २१ तथा २२, बारहवीं संधि के ७, ९, १०, ११, १२; चौदहवीं के १ से ५, ८, ९, ११ से १५, २१ से २३, २५, २६, २७ तथा २९; पंद्रहवीं संधि के २, ७, ९, १०, ११, १२ और सोलहवीं संधि के ४, ६, ७, १०, १२ तथा १४ वें कड़वकों के पत्ते इस प्रकार के हैं । कविदर्पण ( २ - ३० ) में इस छन्द को घत्ता छंद का एक प्रकार बताया है किंतु वहां मात्रागणों की कोई व्यवस्था नहीं बताई हैं । (iv) जिनके पहिले और चौथे पादों में १२ तथा तीसरे और छठवें पादों में १३ मात्राएं है अतः प्रत्येक पंक्ति में ३३ (१२+८+१३) उनके पहिले और चौथे पादों में मात्रागणों की व्यवस्था दूसरे वर्ग की षट्पदियों के समान संख्या वाले पादों के समान है । इनके तीसरे और छठवें पादों में वह व्यवस्था एक षण्मात्रागण, एक चतुर्मात्रागण से की गई है। अंतिम गण सर्वत्र तीन लघु से व्यक्त किया गया है— पहिला तथा चौथा पाद—६+४+ २ = १२ तीसरा तथा छठवां पाद–६ + ४ + UUU = १३. पहिली संधि के ४ थे; आठवीं संधि के १२, १४; चौदहवीं संधि के २४ तथा ३० कडवकों के घत्ते एवं चौदहवीं संधि का तथा पन्द्रहवीं संधि के ध्रुवक इस प्रकार के हैं । कविदर्पण (२.२९) में इसे घत्ता छंद का दूसरा प्रकार बताया है किंतु उस ग्रन्थ में इसके पादों की मात्रागण व्यवस्था का कोई उल्लेख नहीं किया । स्वयंभू छन्द ( ८. २२) में इसे छका छन्द का एक भेद बताया है । ( v ) जिनके पहिले और चौथे पार्दो में १४ तथा तीसरे और छठवें में १२ तदनुसार प्रत्येक पंक्ति में ३४ (१४+८+१२) मात्राएं हैं उनके पहिले और चौथे पादों में मात्रागणों की व्यवस्था एक षण्मात्रागण, और दो चतुर्मात्रागणों से या तीन चतुर्मात्रागणों और एक द्विमात्रागण से की गई है। इनके तीसरे तथा छठवें पादों में वह व्यवस्था पहिले वर्ग की षट्पदी के तीसरे पाद के अनुसार है— पहिला तथा चौथा पाद - ६+४+४ या ४+४+४+२ १४ तीसरा तथा छठवां पाद–६+४+२ (UU ) = १२ पहिली संधि के १७ वें, आठवीं संधि के १६, २३, चौदहवीं संधि के १९ वें, पन्द्रहवीं संधि के ८ वें तथा सोलहवीं संधि के २, ३, ५, ८, ९, १५, १६, १७ तथा १८ कडवकों के घत्ते तथा सोलहवीं संधि का ध्रुवक इस वर्ग के छन्द में हैं । स्वयंभूछन्द, छन्दोनुशासन, कविदर्पण तथा प्राकृत पैंगल आदि ग्रन्थ में इस प्रकार की षट्पदी का पता नहीं चल सका । (vi) जिनके पहिले तथा चौथे पादों में १४ तथा तीसरे और छठवें पादों में १३ मात्राएं है अतः प्रत्येक पंक्ति में मात्रासंख्या ३५ (१४+८+१३) है । उनके पहिले तथा चौथे पादों में मात्रागणों की व्यवस्था पांचवे वर्ग की षट्पदी के पहिले पाद के समान है तथा तीसरे और छठवें पादों में वह एक षण्मात्रा गण, एक चतुर्मात्रागण तथा एक त्रिमात्रागण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001444
Book TitlePasanahchariyam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmkirti
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1965
Total Pages538
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Literature, & Story
File Size12 MB
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