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स्मृत शीलांक ऐसे होने चाहिए जो व्याकरण, काव्य, कोश, चरित्र आदिके रचयिताके रूपमें ख्यातनाम हो । यह तर्क हमें ऐसी सम्भावनाकी ओर ले जाता है कि लेखकको शीलांक पदसे शायद चउप्पन्नके रचयिता शीलांक अभिप्रेत हो' ।
प्रस्तावना
ग्रन्थगत सांस्कृतिक सामग्री
शालवाहनकी सभा शतशः कवियोंसे शोभित होती होगी, अर्थात् वह अत्यन्त विद्याप्रिय राजा होगा - यह बात पृ. १३८ के अन्तमें आये हुए अटवीवर्णनके श्लिष्ट प्रयोगसे ज्ञात होती है । उसमें कहा है- 'सालवाहनत्थाणि जइ सिय कइसयसंकुल' इसमें अटवीके पक्षमें 'कइसयसंकुल' का अर्थ है कपिशतसंकुला तथा शालवाहनकी सभाके पक्षमें अर्थ कविशतसंकुला ।
सरस्वती नदीके किनारे पर बसे हुए सिणवल्लिया नामक गाँवके पास ( ' पत्तो सररसईए तीरासण्णं सिणवल्लियाहिहाणं गामं ति' पृ. १८६ ) जरासंघको हराकर यादवोंने विजयके उत्साहमें आकर आनन्द मनाया और उसके स्मारकके रूपमें आनन्दपुर नामक नगर ( आधुनिक वडनगर ) बसाया । वहाँ उन्होंने 'अरहंतासणय' नामक एक चैत्य भी बनवाया था, जो ग्रन्थकार शीलांकके समय में विद्यमान था । वह पाठ इस प्रकार है- “ तओ भत्तिन्भरनिब्भरेहिं जायवणरिंदेहिं तत्थ भयवं निवेसिऊण अरहंतासणयाहिहाणमाययणं कारियं, आणंदपुरं च णिविट्टं । अज्ज वि तत्थ पसिद्धं पञ्चक्रखमुवलक्खिज्जइति ।" पृ. १८९ ।
वर्धमानस्वामिचरितमें सूचित गोसाल, विसाल, विसाहिल, पारासर (पृ. ३०४ ) आदिके मंत्र, तंत्र, इन्द्रजालमें नैपुण्य से, बिद-यूकातापस (पृ. २८१ ) एवं गोसालकके (पृ. ३०६-७ ) तेजोलेश्याके प्रसंगसे तथा अस्थिकनागराजप्रस्ताव (पृ. २७५ )में आनेवाले हड्डियोंके मन्दिरके उल्लेखसे ऐसा ज्ञात होता है कि आजसे ढाई हजार वर्ष पहले वर्धमानस्वामी के समयमें भारतके विविध परिव्राजकोंमें तांत्रिक विद्याका ठीक ठीक प्रसार होगा । उस समय हरी या सूखी शैवालके अतिरिक्त किसी भी पदार्थका आहार न करनेवाले सैकड़ों तपस्वी विद्यमान थे (पृ. ३२३ ) ।
सिंहलद्वीप ( श्री लंका) में राज्यधर्म बौद्ध था इसका उल्लेख भी पृ. १५४में मिलता है ।
इतिहासप्रसिद्ध नालंदा के लिए ग्रन्थकारने यहाँ 'णागलंद' शब्दका प्रयोग किया है। इसके आधार पर नालंदाकी व्युत्पत्ति इस प्रकार बताई जा सकती है- णागलंद ८ णायलंद ८ णाअलंद ८ णालंद ८ णालंदा । पाठान्तर में 'णागलिंद' शब्द भी मिलता है । यह णागलंद राजगृहकी एक बहिर्भूमि थी ऐसा भी इसमें कहा गया है । वह पाठ इस प्रकार है।
'तत्थ णागलंदणामाए पुरबाहिरियाए एकते पेच्छिऊग अवायपरिवज्जियं वसहिं संठिओ सव्वराइयं पडिमं ।' पृ. २८० पृ. १६६ में चिलिस और डोड नामकी जातियोंका उल्लेख आता है ।
काशीदेशमें खाद्य सामग्रीकी विपुलताका निर्देश इस प्रकार आता है- 'अस्थि इहेव जंबुद्दीवे दीवे भारहे वासे कासी णाम जणवओ पउरजण - धणसमाउलो पमुइयगामिणयजणजणियहरबोलो अजत्तसंपजंतसासच्छेत्तरमणिजो । अवि य --
सइ जत्थ व तत्थ व जह व तह व संपडइ भोयणमणग्धं । दारिदघरेसु वि पंथियाण दहि- सालि- कूरेण ॥ (पृ. ८६ )
१ प्रस्तुत उपन्नमहापुरिसचरियके अन्तर्गत जो विबुधानन्द नामक नाटक आता है उसका अलगसे सम्पादन करके प्रो. पुरुषोत्तमदास जैन ने १९५५ ई. में दरियाना बुक डिपो, रोहतकसे प्रकाशित किया है। उसमें भी ग्रन्थकारके विषयमें पुरातत्त्वाचार्य मुनिश्री जिनविजयजी सम्पादित जीतकल्पसूत्रकी प्रस्तावनासे विशेष जानकारी नहीं मिलती ।
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