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चउप्पन्नमहापुरिसचरिय असंगत और अनिर्णीत कहे जा सकते हैं) उनके आधार पर वनराजके गुरु शीलगुणसूरि और दोनो शीलाचार्योंको एक मानकर श्री देसाईने उनकी स्तुतिके रूपमें मुनिरत्नसूरिकृत अममस्वामिचरित्रका जो श्लोक उद्धृत किया है वह भी शीलगुणसूरि या शीलाचार्यकी स्तुतिरूप नहीं है, किन्तु उससे तो श्री हेमचन्द्राचार्यकी स्तुति की गई है । वह श्लोक इस प्रकार है
गुरुर्गुर्जरराजस्य चातुर्विथैकसृष्टिकृत् । त्रिषष्टिनरसद्वृत्तकविर्वाचां न गोचरः ।। इसमें आये हुए ‘गुर्जरराज' शब्दका अर्थ कुमारपाल के बदले वनराज करके उसके विद्यागुरु शीलगुणसूरिका तथा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रके बदले चउप्पन्नमहापुरिसचरियकी कल्पना करके शीलाचार्यका ऐक्य सूचित करनेका आशय मादम पड़ता है, परन्तु 'चातुर्वि चैकसृष्टिकृत्' विशेषण जितना हेमचन्द्राचार्यके लिए उपयुक्त लगता है उतना शीलगुणसूरि या शीलाचार्यके लिए उपयुक्त प्रतीत नहीं होता । इसके अलावा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्रके निर्देशका आशय भी इसमें स्पष्ट अवगत होता है । सम्भावनाओंको विधान मानकर किया गया निर्णय कैसा असंगत होता है यह जाननेके लिए उपयुक्त श्लोकका श्रीदेसाईकृत अर्थ एक उदाहरणरूप है ।
प्रस्तुत विचारके सन्दर्भ में एक बात विशेष सूचक है; अतः अन्तमें इसका निर्देश करना मुझे आवश्यक प्रतीत होता है। आचारांग एवं सूत्रकृतांगके टीकाकार अपना नाम तत्त्वादित्य एवं शीलाचार्य सूचित करते हैं, किन्तु कहीं कहीं प्रत्यंतररूपसे शीलांकका भी निर्देश मिलता है । इस परसे यह संभावना होती है कि उनका मूल नाम शीलाचार्य होगा किन्तु बादमें शीलाचार्य और शीलांकाचार्यका एकीकरण हो जानेके कारण वे शीलांक नामसे भी प्रसिद्ध हुए।
३. चउप्पन्नमहापुरिसचरियके कर्ता शीलाचार्यका परिचय दिया जा चुका है ।
४. जीवसमासवृत्तिमें ग्रन्थकार अपना नाम शीलांक सूचित करते हैं। इसके अतिरिक्त अन्य कोई जानकारी इसमें उपलब्ध न होनेसे ग्रन्थके साद्यन्त अवलोकनके अनन्तर ही कुछ कहा जा सकता है। सरसरी निगाहसे मैं सारा ग्रन्थ देख तो चुका हूँ, परन्तु उसके आधारपर किसी निर्णयपर आना इस समय कठिन है ।
५. शीलाचार्यरचित पूजाविधिविषयक कोई कृति का जो निर्देश बृहटिपनिकामें आता है वह इस प्रकार है'श्रीशान्तिवेतालीयपर्वपंजिका स्नपनविध्यादिवाच्या श्रीशीलाचार्याया। इस उल्लेख परसे ज्ञात होता है कि इस कृतिका विषय पूजाविधि रहा होगा । अबतक इसकी एक भी प्रति उपलब्ध नहीं हुई, अतः नाममात्रका उल्लेख करनेवाले उपर्युक्त उल्लेखके आधार पर इतनी मात्र संभावना की जा सकती है कि स्नपनविधि आदि विषयक कोई ग्रन्थ शीलाचार्यका था जिस पर वादिवेताल शान्त्याचार्यने पंजिका लिखी थी।
६. हेमचन्द्रीय देशीनाममालाकी टीकामें निर्दिष्ट शीलांक चउप्पनके कर्ता शीलांक होने चाहिए ऐसे अनुमानका निर्देश मैंने ऊपर किया ही है।
७. प्रभावकचरित्रमें निर्दिष्ट शीलांकके बारेमें पहले कहा जा चुका है।
८. लगभग १३वीं शतीके आचार्य विनयचन्द्रने अपनी काव्यशिक्षाके अन्तमें व्यास आदि ब्राह्मण ग्रन्थकारों के नामोंके साथ जैन ग्रन्थकारोंका भी नामनिर्देश किया है । उसमें शीलांकका नाम भी आता है। काव्यशिक्षाका वह पाठ इस प्रकार है--
भद्रबाहुर्हरिभद्रः शीलांकः शाकटायनः । उगस्वातिः प्र........॥' (आगेका पत्र उपलब्ध नहीं) इसमें केवल नामका ही निर्देश होनेसे लेखकको कौनसे शीलांक अभिप्रेत हैं यह जानना कठिन है, तथापि काव्यशास्त्रमें १ देखो ‘पत्तनस्थजैनभाण्डागारीयसूचि ' (ओरिएण्टल इन्स्टिटयूट, बड़ौदा प्रकाशित) पृ. ५० ।
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