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प्रस्तावना
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बात प्रस्तुत ग्रन्थके पृ. ४ पर स्पष्ट की है। परन्तु साथ ही जनताका नैतिक स्तर समुन्नत रखनेकी भी एक आनुषंगिक दृष्टि धर्मकथाकारकी होती है। इसी दृष्टिकोणसे चोरी, माया, क्रोध, जातीय अहंकार तथा हिंसा आदि करनेसे कैसा कटु फल भुगतना पड़ता है इसके निदर्शन देवकी, मल्लिस्वामी, चण्डकौशिक, कटुमुनि एवं कर्षणमुनि तथा श्रमण भगवान् महावीरस्वामीके कथा-प्रसंगोंमें होता है । स्वयं तीर्थंकर होनेवाले जीवोंको भी हिंसा आदिसे उपार्जित दुष्कर्मके कटुविपाक रूप नरकगति आदिकी विडम्बनाएँ सहनी पड़ती हैं और अपने अशुभ कर्मोका फल भोगना ही पड़ता है; बाह्यक्रियाकाण्डोंकी सहायतासे ऐसे दुष्कृत निष्फल नहीं होते यही समझानेका प्रयत्न लेखकने इसमें किया है।
कर्मकी दुर्निवारताका निवारण आसक्तिके परित्यागमें है और पुरुषके लिए आसक्तिका प्रमुख केन्द्र नारी है । अतएव उसका आकर्षण कम करनेकी दृष्टिसे इसमें नारी-निन्दा विषयक सुभाषित, नायिकाकी अन्य पुरुषमें आसक्तिके सूचक वरुणवर्मकथानक (पृ. ५७ से ६७) तथा मुनिचन्द्रकथानक (पृ. ११७ से १२७) दिये गये हैं। प्रस्तुत ग्रन्थमें सिर्फ पाँच अवान्तर-कथाएँ आती हैं । इन कथाओंमेंसे उपर्युक्त दो कथाओं का मुख्य प्रतिपाद्य विषय स्त्रीका विश्वासघात है। अवशिष्ट तीन कथाओंमेंसे एक विजयाचार्य-कथानक (पृ. १०६ से ११४ )में एक स्थान पर रानीको दुःशीला बताया है। जहाँ अवसर मिला है, लेखकने दुःशीला नायिकाके कथाप्रसंगको प्राधान्य दिया है; इससे उसके रुझानका हमें पता चलता है । सम एवं शमप्रधान धर्माचार्य किसीके प्रति दुर्भाव नहीं रख सकते, फिर चाहे वह स्त्री हो या अन्य कोई व्यक्ति । उनका तो मूल उद्देश्य आसक्ति के त्यागका है और नरके लिए सबसे बड़ी आसक्ति नारी है । नारीके स्थानमें आसक्तिका कारण अन्य कोई वस्तु होती तो लेखक नारीको छोड़कर उसका प्रतिवाद करता । अतः लेखकका उद्देश्य नारीकी अवहेला नहीं, किन्तु अनासक्तभावका उद्बोधन ही है ऐसा समझना उचित होगा।
___ संक्षेपमें हम कह सकते हैं कि त्याग एवं नीतिके कल्याणमार्ग में वाचक, श्रोता एवं मानवसमाज प्रवृत्ति करे इसी उद्देश्यसे इस ग्रन्थकी रचना हुई है। साथ ही, अन्यान्य ग्रन्थों में आई हुई तथा मुखपरम्परासे चली आती जैन-परम्पराके प्रधानपुरुषोंकी कथाओं को एक ही ग्रन्थमें संकलित करनेका भी लेखकका उद्देश्य अवगत होता है। पूर्वस्रोत
जैन परम्परामें ऐसी मान्यता प्रचलित है कि श्रमण भगवान् महावीरके पांचवें शिष्य सुधर्मस्वामीने आर्य जम्बूस्वामीको समग्र कथानुयोग कहा था । यही कथानुयोग प्रथमानुयोग कहलाता है । यह प्रथमानुयोग कालकाचार्यके समय तक आते आते शाब्दिक रूपसे विस्मृत हो गया था, परन्तु अर्थकी दृष्टिसे उसका प्रवाह आचार्य-परम्पराद्वारा बहता रहा। कालकाचार्यने उस अर्थ-प्रवाहके आधार पर 'प्रथमानुयोग' नामक ग्रन्थकी पुनः रचना की। इसके पश्चात् पूर्वका विस्मृत प्रथमानुयोग 'मूल-प्रथमानुयोग' कहा जाने लगा । आज तो आर्य कालकरचित प्रथमानुयोग भी उपलब्ध नहीं है, यद्यपि इसका अस्तित्व रचनाके उपरान्त भी अनेक शताब्दियों तक रेहा ।
प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिताने इसकी कथावस्तुके पूर्वस्रोतके रूपमें आचार्यपरम्परा द्वारा प्राप्त प्रथमानुयोगका निर्देश (पृ. ४ ) किया है। इससे ऐसा निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता कि उनके समक्ष आर्य कालकरचित प्रथमानुयोग होगा ही । इसीके साथ ऐसा माननेका भी कोई कारण नहीं है कि आर्य कालकके प्रथमानुयोगकी परम्परा एवं गण्डिकानुयोगगत गण्डिकाओं तथा इतर प्राचीन प्रवाहोंके प्रभावसे यह ग्रन्थ सर्वथा अछूता ही रहा होगा।
सामान्य रूपसे इतर ग्रन्थोंमें उपलब्ध कथागत वस्तुकी अपेक्षा यहाँ कहीं-कहीं भिन्नता प्रतीत होती है । इससे यह १ देखो ‘आचार्य श्री वल्लभसूरि स्मारक ग्रन्थ 'में विद्वद्वर्य मुनि श्री पुण्यविजयजीका लेख "प्रथमलनुयोग अने तेना प्रणेता आर्यकालक । "
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