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उत्पन्न महापुरिसचरिय
आम्रकृत चउप्पन्नमहापुरिसचरिय
आम्र कविने भी इसी नामक एक ग्रन्थकी रचना की है जो अप्रकाशित है । नाम एवं विषय दोनोंकी दृष्टिसे समान इस रचना का सामान्य परिचय प्राप्त करना यहाँ उपयुक्त होगा इस दृष्टिसे उसका यहाँ संक्षिप्त परिचय दिया जाता है ।
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मुख्यतः आर्याछन्द में रचित और १०३ अधिकारोंमें विभक्त इस प्राकृतभाषानिबद्ध ग्रन्थकी अनुमानतः १६वीं शती में लिखित एक हस्तलिखित प्रति सूरिसम्राट् श्री विजय नेमिसूरीश्वर - शास्त्र संग्रह, खम्भातमें है । १००५० श्लोक - परिमाणके इस ग्रन्थमें ८७३५ गाथाएँ और १०० इतर वृत्त हैं । चौवन महापुरुषोंके चरित्रकी समाप्तिके उपरान्त नौ प्रतिवासुदेवोंको जोड़ने से त्रेसठ शलाकापुरुष होते हैं, ऐसा उपसंहारमें कहा है ।
इसमें भी तीर्थंकरोंके यक्ष-यक्षिणिओंका उल्लेख है, जो प्राचीनतम ग्रन्थोंमें नहीं हैं। अतएव संभावना की जा सकती है की यह ग्रन्थ शीलांकीय चउप्पन्नम० च० के बाद रचा गया होगा । विक्रम सं. १९९० में रचित आम्रदेवसूरिकृत आख्यानकमणिकोशकी वृत्तिमें अम्म और आम्रदेवसूरि अभिन्न होनेका कोई आधार मिलता नहीं है । ग्रन्थके प्रारंभ और अन्तमें ग्रन्थकारने अपने लिए अम्म शब्दके अतिरिक्त कोई विशेष परिचायक सामग्री नहीं दी है ।
भाषा और श्लोक-परिमाण
शीलiate प्रस्तुत ग्रन्थ प्राकृत भाषामें लिखा गया है यह बात स्वयं ग्रन्थकारने पृ. ३३५ की दूसरी गाथामें स्पष्ट की है। मुद्रित पृ. १७ से २७ में आया हुआ 'विबुधानन्द नाटक' संस्कृतमें है और कहीं कहीं अपभ्रंश सुभाषित भी आते हैं । इनके अतिरिक्त सम्पूर्ण ग्रन्थ प्राकृतमें है । इसमें 'देशी' शब्दोका प्रयोग भी ठीक-ठीक मात्रामें हुआ है । ग्रन्थके अन्तमें इन अपभ्रंश पाठों और देशी शब्दोंकी सूचि अनुक्रमसे तृतीय एवं चतुर्थं परिशिष्टमें, अभ्यासियोंकी जानकारीके लिए दी गई है।
अनुष्टुप् श्लोककी गिनतीके अनुसार प्रस्तुत ग्रन्थका श्लोक-परिमाण १०,८०० है । बृहट्टिप्पनिकामें यह परिमाण दस हजार लोकका बतलाया हैं, जबकि 'जे' संज्ञक प्रतिमें १४,००० लिखा है, तो 'सू' संज्ञक प्रतिमें परिमाणका कोई सूचन ही नहीं है; परन्तु इसी 'सू' संज्ञक प्रतिके आधार पर वि. सं. १६७३ में लिखी गई कागज़की पोथीमें यही संख्या प्रतिके मूल लेखकने १०,८०० दी है। प्रतिके कदसे भी यही प्रतीत होता है कि ग्रन्थकी परिमिति इस संख्यासे अधिक नहीं हो सकती ।
उपर्युक्त कागज्ञकी पोथी में किसीने बादमें अनुचित रूपसे छेड़छाड़ करके वह संख्या बढ़ाकर अक्षरोंमें तथा अंकों में ११,८०० कर दी है । मूल लेखकने 'अष्टशत्यधिकानुष्टुप्सहस्राणि दशैव च ॥ १०८०० ॥' लिखा था, किन्तु उसे सुधारकर ‘अष्टशत्यधिकानुष्टुप्सहस्राण्येकादशैव च ॥ ११,८०० ॥' किया गया है। इस सुधारमें जो छन्दोभंग है वह बिलकुल स्पष्ट । संभव है किसी व्यवसायी लेखकने उस कागज़की प्रति के आधारसे नकल करते समय लोभवृत्तिसे प्रेरित हो कर ऐसा किया होगा ।
विषय
ग्रन्थका विषय मुख्य रूपसे धर्मकथाका है । ऐसी धर्मकथाओं में शुभ एवं अशुभ कर्मोंके बन्धसे होनेवाले सुख-दुःखके परिपाकरूप देवत्व, महर्धित्व, नीरोगिता, सुरूपता, नरकगति, तिर्यंचगति, दारिद्र्य, रुग्णता, कुरूपता आदि प्राप्त होते हैं - ऐसा सूचित करके अशुभ प्रवृत्तिके परित्याग और शुभ प्रवृत्तिके आचरण आदिका उपदेश दिया जाता है । अपने सम्प्रदायके प्रधान पुरुषोंके जीवनवृत्तकी संकलना भी ग्रन्थका मुख्य विषय है ।
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उद्देश्य
वाचक एवं श्रोतागण कल्याणमार्गमें प्रवृत्त हो-यही इस ग्रन्थ-रचनाका मुख्य उद्देश्य है और स्वयं लेखकने भी यही
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