SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 14
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३. हं.- यह प्रति बडौदा श्रीआत्मारामजी जैन ज्ञानमंदिरस्थित पूज्यपाद श्रीहंसविजयजी महाराज संगृहीत ज्ञानभंडारकी है और नई लिखी हुई है। नन्दीसूत्रकी हारिभद्रीवृत्ति एवं उसके ऊपरी दुर्गपदव्याख्यामें कोई पाठभेद प्राप्त नहीं हैं । नन्दीसूत्रविषमपदटिप्पनककी प्रतियाँ । नन्दीसूत्रविषमपदपर्याय या टिप्पनक, यह कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं है, किन्तु 'सर्वसिद्धान्तपर्याय ' नामक ग्रन्थमेसे विभाजित अंशमात्र है। इसके संशोधनके लिये पाटन–श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमन्दिरकी दो प्रतियोंका उपयोग किया गया है, जो अनुमान विक्रमकी सत्रहवीं शतीकी लिखित प्रतीत होती हैं । इस प्रकार इन सत्रह हस्तप्रतियोंके आधारसे इस ग्रन्थाङ्कका संशोधन एवं संपादन किया गया है। नन्दीसूत्रकार नन्दीसूत्रके प्रणेता स्थविर देव वाचक हैं । इनके सम्बन्धमें जो कुछ कहनेका था वह चूर्णि सहित नन्दीसूत्रकी प्रस्तावनामें कह दिया है। लघुवृत्तिकार श्रीहरिभद्रसरि इस ग्रन्थाङ्कमें प्रकाश्यमान वृत्तिके प्रणेता याकिनीमहत्तराधर्मसूनु आचार्य श्रीहरिभद्रसूरि महाराज हैं। इनके विषयमें विद्वानोंने अनेक दृष्टि से विचार किया है और लिखा भी बहुत है। अतः यहाँ पर मुझे अधिक कुछ भी कहनेका नहीं है। जो कुछ कहनेका था, वह मैंने, श्री लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृतिविद्यामन्दिरग्रन्थावलीके चतुर्थ प्रन्थाङ्करूपमें प्रसिद्ध किये गये 'सटीक योगशतक और ब्रह्मसिद्धान्तसमुच्चय की प्रस्तावनामें कह दिया है। अतः विद्वानोंसे प्रार्थना है कि उस प्रस्तावनाको देखें। दुर्गपदव्याख्याकार श्री श्रीचन्द्रसरि इस ग्रन्थाङ्कमें सम्पादित नन्दीवृत्तिटिप्पनक, जिसका नाम ग्रन्थकारने दुर्गपदव्याख्या दिया है, इसके प्रणेता आचार्य श्रीश्रीचन्द्रसूरि हैं । ये अपनेको चन्द्रकुलीन आचार्य श्रीशीलभद्रसूरिके शिष्य श्रीधनेश्वराचार्य के शिष्य बतलाते हैं । इनका, आचार्यपदप्राप्तिकी पूर्वावस्थामें नाम पार्श्वदेवगणि था, ऐसा उल्लेख इन्हींकी रचित पाटन-खेत्रवसी पाडाको न्यायप्रवेशपञ्जिकाकी ताडपत्रीय प्रतिकी पुष्पिकामें पाया जाता है। जो इस प्रकार हैन्यायप्रवेशशास्त्रस्य सद्वृत्तेरिह पञ्जिका । स्वपरार्थ दृष्टा(दृन्धा) स्पष्टा पार्थदेवगणिनाम्ना ॥१॥ ग्रह ९रस६ रुदै११र्युक्ते विक्रमसंवत्सरेऽनुराधायाम् । कृष्णायां च नवम्यां फाल्गुनमासस्य निष्पन्ना ॥२॥ न्यायप्रवेशविवृतेः कृत्वेमा पञ्जिकां यन्मयाऽवाप्तम् । कुशलोऽस्तु तेन लोको लभतामवबोधफलमतुलम् ॥३॥ यावल्लवणोदन्वान् यावन्नक्षत्रमण्डितो मेरुः । खे यावच्चन्द्रार्को तावदियं पञ्जिका जयतु ॥४॥ शुभमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।।५।। इति श्रीशीलभद्रसूरिशिष्यसुगृहीतनामधेयश्रीमद्धनेश्वरसूरिशिष्यैः सामान्यावस्थाप्रसिद्धपण्डितपार्श्वदेवगण्यभिधानविशेषावस्थावाप्तश्रीश्रीचन्द्रसुरिनामभिः स्वपरोपकारार्थ दृब्धा विषमपदभञ्जिका न्यायप्रवेशकवृत्तेः पञ्जिका परिसमाप्तेति ।। आचार्य श्री श्रीचन्द्रसूरि, जिनका पूर्वावस्थामें पार्श्वदेवगणि नाम था, उन्होंने अपने गुरु श्रीधनेश्वराचार्यको श्रीजिनवल्लभगणिविरचित सार्धशतकप्रकरण-अपरनाम-सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरणको वृत्तिको रचना और उसके संशोधनादिमें साहाय्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001441
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1966
Total Pages248
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Metaphysics, & agam_nandisutra
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy