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________________ और भी प्रतियाँ संशोधनके समय पासमें रक्खी गई थीं। किन्तु उनका उपयोग जहाँ आवश्यकता प्रतीत हुई वहाँ ही किया गया है। श्रीचन्द्रीयदुर्गपदव्याख्या-टिप्पनक की प्रतियाँ हारिभद्रीवृत्तिसमेत नन्दीसूत्रके बादमें चन्द्रकुलीन आचार्य श्रीधनेश्वरसूरिके शिष्य श्री श्रीचन्द्रसूरिविरचित हारिभद्रीवृत्तिका टिप्पनक छपा है, जिसका आचार्यने 'नन्दीटीकादुर्गपदव्याख्या ' नाम दिया है । इसके संशोधनके लिये तीन प्रतियाँ एकत्र की गई हैं १. जे. पति-जेसलमेरके खरतरगच्छीय आचार्य श्रीजिनभद्रसूरिके ताडपत्रीय ज्ञानभंडारकी ताडपत्रीय प्रति, सूचिमें इस प्रतिका क्रमांक ७६ है। इस प्रतिके पत्र २२१ हैं। प्रति अति शुद्ध और उसमें कहीं कहीं किसी विद्वान् मुनिवरकी लिखी हुई महत्त्वकी टिप्पनीयां भी हैं । प्रतिके अंतमें इस प्रकार लेखककी पुष्पिका पाई जाती है-- ॥ ग्रंथाग्रम् ३३००॥ छ । मंगलमस्तु ।। छ । संवत् १२२६ वर्षे द्वितीयश्रावण शुदि ३ सोमेऽयेह मंडलीवास्तव्य श्रीजाल्योधरगच्छे मोढवंशे श्रावक श्री सदेवसुतेन ले० पल्हणेन लिखिता । लिखापिता च श्रीगुणभद्रसरिभिः ।। छ। मंगलमस्तु ॥ छ॥ सकलभुवनप्रकाशनभानुश्रीहेमचन्द्रसुगुरूणाम् । स्थापयिताऽऽसीद् भाण्डागारिकसोमाकसुश्राद्धः ॥१॥ मरुदेवागर्भजया तत्सुतया सोमिकाहया क्रीत्वा । नन्धध्ययनसुविवरणटिप्पितपुस्तकमिदमुदारम् ॥२॥ मुनिबालचन्द्रशिष्यश्रीमद्गुणभद्रस रिसुगुरुभ्यः । दत्तमुपलभ्य वयं फलममलं ज्ञानदानस्य ॥३॥ ___ सं. १३१३ श्रीजिनपद्मरिगुरूपदेशेन सा० केलिपुत्र सा० किरता सुश्रावकेण सत्पुत्र सा० विजमल सा. कर्मसिंह पौत्र कीका सकलपरिवारेण समत्रा नन्दीटीका गृहीता । भगिनीनायकसुश्राविकाश्रेयोर्थम् । आचन्द्रार्क नन्दतात् ॥ श्रीः ॥ ___ दुर्गपदव्याख्याकी प्रतिके अन्तमें लिखित इस पुष्पिकासे ज्ञात होता है कि- यह प्रति गुणभद्र आचार्यने वि. सं. १२२६ में मंडलीवास्तव्य जाल्योधरगच्छीय मोढज्ञातीय पल्हण नामक श्रावक लेखकके पास लिखाई थी। जिसको भंडारी सोमाककी धर्मपत्नी मरुदेवाकी पुत्री सोमीने खरीद कर (? लेखनमूल्य दे कर) हेमचन्द्राचार्यके शिष्य बालचन्द्रमुनिके शिष्य गुणभद्रसूरिको उपहृत की थी। बादमें अस्तव्यस्त हो जाने के कारण इस प्रतिको-वि. सं. १३१३ में श्रीजिनपद्ममरिके उपदेशसे किरतानामक श्रावकने अपनी बहिन नायक सुश्राविकाके श्रेयोनिमित्त खरीद की। इस पुष्पिकामें निर्दिष्ट श्रीहेमचन्द्राचार्य, बालचन्द्रमुनिके गुरु होनेके कारण सम्भव है कि- ये चालक्यराज कुमारपालनृपप्रतिबोधक हेमचन्द्राचार्य हों। पुष्पिकागत ' सकलभुवनप्रकाशनभानु' यह विशेषण भी इस अनुमानको पुष्ट करता है। इस पुष्पिकासे यह भी सूचित होता है कि-प्राचीनकालमें भी ज्ञानभंडारको पुस्तकें अस्तव्यस्त हो जाती थीं और इनको पुनः खरीद भी कर ली जाती थीं। इस प्रतिके आदिके दो पत्र प्राचीन कालसे ही गूम हो गए हैं । यही कारण है कि- आज इस दुर्गपदव्याख्याकी जो प्राचीन अर्वाचीन हस्तप्रतियाँ देखनेमें आई हैं उन सभीमें इस व्याख्याका मंगलाचरण आदि प्रारम्भिक अंश प्राप्त नहीं है। २. पा.-यह प्रति पाटन-श्रीहेमचन्द्राचार्य जैन ज्ञानमंदिरस्थित श्रीसंघके ज्ञानभंडारकी प्रति है। यह प्रति अनुमान विक्रमकी सत्रहवीं शतीमें लिखित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001441
Book TitleNandisutram
Original Sutra AuthorDevvachak
AuthorPunyavijay, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year1966
Total Pages248
LanguagePrakrit, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Metaphysics, & agam_nandisutra
File Size24 MB
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