SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 98
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १.१५१ ] मात्रावृत्तम् खुरासाण खुहिअ रण महँ लंघिअ मुहिअ साअरा, हम्मीर चलिअ हारख पलिअ रिउगणह काअरा ॥ १५१ ॥ १५१. उदाहरण मलय का राजा भग गया, चोलपति (युद्धस्थल से लौट गया, गुर्जरों का मानमर्दन हो गया, मालवराज हाथियों को छोड़कर मलयगिरि में जा छिपा । खुरासाण ( यवन राजा) क्षुब्ध होकर युद्ध में मूर्छित हो गया तथा समुद्र को लाँघ गया (समुद्र के पार भाग गया) । हम्मीर के (युद्धयात्रा के लिए) चलने पर कातर शत्रुओं में हाहाकार होने लगा । टिप्पणी-भंजिअ - Vभंज + इअ; कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त का भूतकालिक क्रिया के लिए प्रयोग । णिवलिअ - (<निवृत्तः), गंजिअ, लुक्किअ ('लुक' देशी धातु, अर्थ 'छिपना' तु० हि० 'लुकना'), खुहिअ (< क्षुब्धः) । मुहिअ - (< मूढ:) *मुहित > *मुहिओ मुहिअ ) । लंघिअ—(<लंघितः)—ये सब कर्मवाच्य भूतकालिक कृदन्त रूप हैं । रिउगणह- रिपुगणेषु 'ह' अधिकरण ब० व० विभक्ति । > काअरा - < कातरेषु । वस्तुतः यह शुद्ध प्रातिपदिक 'कातर' है, जिसके पदान्त 'अ' को छन्दोनिर्वाह तथा तुक के लिये 'आ' बना दिया गया है । [अथ द्विपदीछन्दः ] आइ इंदु जत्थ हो पढमहि दिज्जइ तिणि धणुहरं, तह पाइक्कजुअल परिसंठवहु विविहचित्तसुंदरं ॥ १५२ ॥ [ ७३ सरसइ लइअ पसाउ तहँ पुहवी करहि कइत कइअणा, महुअरचरण अंत लइ दिज्जहु दोअइ मुणहु बुहअणा ॥१५३॥ १५२ - १५३. द्विपदीछंदः हे विद्वज्जनो, प्रथम चरण में आरम्भ में जहाँ इंदु (षट्कल गण) हो, उसके बाद दो धनुर्धर (चतुष्कल) हो, तथा फिर दो पदाति (चतुष्कल ) स्थापित करो, अन्त में मधुकर चरण (षट्कल) दो। इसे द्विपदी कहो। हे कविजनो, सरस्वती से प्रसाद लेकर पृथ्वी में नाना प्रकार के चित्रों को सुन्दर लगनेवाले कवित्त की रचना करो । टिप्पणी- हो- (भवति) वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० शुद्ध धातु रूप | पढमहि - (प्रथमे) 'हि' अधिकरण ए० व० विभक्ति । दिज्जइ - < दीयते; कर्मवाच्य वर्तमानकालिक प्र० पु० ए० व० । है । मूलतः ये 'धणुहर धणुहरं - यहाँ पदान्त का अनुस्वार छन्दोनिर्वाह के लिए पाया जाता है, यह प्रवृत्ति पृथ्वीराजरासो में भी बहुत पाई जाती है । इसी तरह 'सुंदर' जो इसी की तुक पर पाया जाता है, छन्दोनिर्वाह के लिए प्रयुक्त हुआ तथा 'सुंदर' ही हैं । परिसंठवहु- परिसंस्थापयत, आज्ञा म० पु० ब० व० । करहि - < कुरु, आज्ञा म० पु० ए० व० । कइत्त - कवित्वं (हि० कवित्त), कर्म० ए० व० । कइअणा, बुहअणा - (कविजनाः, बुधजना:), संबोधन ब० व० । Jain Education International १५१. भंजिअ - C. भज्जिअ । गुज्जरा - A. गुञ्जरा। राअ- B. राउ। मालवराअ -0. मालउराअ । खुरासाण - A. खुरसाण, N. खुरसाणा । महँ— K. मह । लंघिअ मुहिअ - A. मुहि अहिअ, N. लंघिअ अहिअ । हारव - C. हारअ । रिउगणह -0. रिउगण । काअरा - B. कादरा । १५२ - १५३. आइग - C. आइहि । दिज्जइ - C. O. दिज्जिअ । तिणि-0. वे वि । लइअ - K. लइ, C. तइ । तह - K. तहि, O ताहि । पुहवी - B. पुहवी, K. पुहबिहि, N. पुहमी, C. प्रतौ लुप्तं वर्तते । कइत्त-कवित्त । लइ -0. लए । दिज्जहु - A दिज्जइ, B. दिज्जउ, C. K. दिज्जहु N. दिज्जसु । दोअइ- A. दोइवइ, N. दोपइ । For Private Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy