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________________ ४८] प्राकृतपैंगलम् [१.९६ ९५. गंधान के प्रथम चरण में सतहर (दस सात) अक्षर रखो; द्वितीय चरण में यमक देकर अठारह वर्ण समझो। टिप्पणी-संठवहु-सं+Vठव+हु, आज्ञा म०पु०ब०व० । दइ-<दत्वा दे०६ ४२ । जहा, कण्ण चलंते कुम्म चलइ पुणुवि असरणा । कुम्म चलंते महि चलइ भुअणभअकरणा । महि अ चलते महिहरु तह अ सुरअणा चक्कवइ चलते चलइ चक्क तह तिहुअणा ॥९६॥ [गंधाण] ९६. गंधान का उदाहरण राजा कर्ण के युद्धयात्रा के लिए चलने पर, कूर्म चलने (हिलने डुलने) लगता है; कूर्म के चलने पर समस्त लोक को भयभीत करने वाली पृथ्वी आश्रयरहित (अशरण) हो चलने (काँपने) लगती है । पृथ्वी के चलने पर पर्वत (सुमेरु) चलने लगता है, और उसके चलने पर देवता लोग काँप उठते हैं । चक्रवर्ती राजा कर्ण के युद्ध के लिए रवाना होने पर समस्त त्रिभुवन चक्र की तरह चलने लगता है। टिप्पणी कण्ण चलन्ते < कर्णे चलति । यह संस्कृत की 'सति सप्तमी' का विकास है। इनमें एक साथ अधिकरण में शून्य तथा 'ए' दो तरह के विभक्ति चिह्न पाये जाते हैं। 'चलन्ते' /चल+अंत (वर्तमानकालिक कृदन्त प्रत्यय)। महि-अप० अव० प्रतिपादिक में दीर्घ स्वर का ह्रस्वीकरण । महि अ चलन्ते-सं० टीकाकारों ने इसे 'मह्यां चलन्त्यां' का रूप माना है तथा 'महिअ' को अधिकरण कारक ए० व० का रूप माना है, दे० पिशेल $ ३८५ (ईअ सुप् प्रत्यय) । मैंने 'अ' को 'च' का विकास तथा 'महि' को अधिकरण ए० व० में शुद्ध प्रतिपादिक रूप का प्रयोग माना है। 'चलते' पु० का स्त्रीलिंग 'महि' के साथ प्रयोग अप० की 'लिंगमतंत्र' वाली प्रवृत्ति का संकेत करता है। तह < तथा; तिहुअणा > 'तिहुअण' के पदान्त 'अ' को छन्द की तुक मिलाने के लिए दीर्घ बना दिया गया है। अह चउपइया, चउपइआ छंदा भणइ फणिंदा, चउमत्ता गण सत्ता । पाएहि सगुरु करि तीस मत्त धरि, चउ सअ असि अणिरुत्ता ॥ चउ छंद लविज्जइ एक्कु ण किज्जइ, को जाणइ एहु भेऊ । कइ पिंगल भासइ छंद पआसइ मिअणअणि अमिअ एहू ॥९७॥ [चउपइआ] ९७. चोपइया छंद फणींद्र पिंगल कहते हैं; चोपइया छंद में सभी चरणों में चतुर्मात्रिक सात गण हों तथा इनके साथ एक गुरु हो, इस तरह ३० मात्रा धरे । इस प्रकार (इसके सोलह चरणों में) ४८० मात्रा कही गई है। ये मात्रायें चार छन्दों में लेनी चाहिएँ (अर्थात् प्रत्येक छन्द में १२० मात्रा होंगी; ३०x४=१२०) । चोपइया छन्द में एक छन्द की रचना नहीं करनी चाहिए; इसकी रचना में सदा एक साथ सोलह चरणों के चार छन्दों की रचना की जानी चाहिएँ । इस भेद को कौन जानता है? कवि पिंगल कहते हैं कि यह छन्द अमृत के समान प्रकाशित होता है। ९६. कण्ण -C. कण । चलंते-C. चन्ते । महि-B. मही । तह-A. सुर, C. चलइ । तह-A. जेहुँ, जउ । चक्क तह-0. चक्क जह । ९६-C. ९९ । ९७. गण-A. गणा । पाएहि-C. पाएँ। सगुरु-B.C. "गुरू । धरि-O. धरी । लविज्जइ-A. ले किज्जइ। एह-B. एउ। भेऊ-A. भेअ । एहू-A. B. एउ। ९७-C. १०० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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