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प्राकृतपैंगलम्
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प्राकृतपैंगलम् का विषय छन्दः शास्त्र है और इसमें पुरानी हिंदी के राज-कवियों (भट्ट कवियों) के यहाँ प्रचलित छंदों के लक्षणोदाहरणों का विवेचन है। संग्राहक ने मात्रिक एवं वर्णिक दोनों प्रकार के प्रसिद्ध छंदों को ही चुना है इस ग्रंथ के मात्रिक छंदों का विवरण विशेष महत्त्वपूर्ण है । हमने बताया है कि प्राकृतपैंगलम् मात्रिक छंदों के विकास में अपभ्रंश की निजी छन्दः परम्परा से सर्वथा भिन्न छन्दः परम्परा का संकेत करता है। अपभ्रंश काव्यों और छन्दः शास्त्रियों के कई छन्द यहाँ नये रूप में अवतरित होते दिखाई पड़ते हैं। कई मात्रिक छन्दों का नये वर्णिक प्रस्तार में विकास हो गया है और वे मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में पाये जाने वाली रूपसज्जा की भूमिका धारण करने लगते हैं । अपभ्रंश के कुछ खास मात्रिक छंद यहाँ सर्वथा लुप्त हो गये हैं और कुछ अप्रसिद्ध छन्द यहाँ महत्त्वपूर्ण बन बैठे हैं । कई मात्रिक छन्दों की मात्रिक गणव्यवस्था, यतिव्यवस्था, यमक और अनुप्रास के प्रयोग में हेरफेर हो गया है, फलतः उनकी लय, गति और गूँज में फर्क आ गया है। स्वयंभू या उनसे भी पहले नंदिताढ्य से लेकर मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा तक मात्रिक तालछन्दों का विकास जानने के लिये प्राकृतपैंगलम् बहुमूल्य ग्रंथ है। हिंदी छन्दः शास्त्र का उदय यहीं से माना जाना चाहिए | हिंदी के विविध छन्दः शास्त्रियों के मतों के साथ प्राकृतपैंगलम् के लक्षणोदाहरण की तुलना करते हुए हम देखते हैं कि मात्रिक छन्दों का विकास जानने के लिये मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा में हम तीन सीढियाँ मान सकते हैं, पहली प्राकृतपैंगलम्, दूसरी केशवदास की छन्दमाला और रामचंद्रिका, तीसरी भिखारीदास का छन्दार्णव । इन तथा दूसरे ग्रंथों को तुलनार्थ लेने पर हमें पता चलता है कि मध्ययुगीन छन्दः शास्त्री प्राकृतपैंगलम् के पूरी तौर पर ऋणी हैं।
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