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उपसंहार
६ २०५. पुरानी हिंदी भाषा, साहित्य और छंदःसंबंधी विकास का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने में प्राकृतपैंगलम् का महत्त्वपूर्ण योगदान है। हिंदी के आदिकालीन साहित्य का अध्ययन करने में विद्वान् न केवल साहित्यिक ग्रंथों को ही महत्त्वपूर्ण मानते हैं, बल्कि दामोदर के 'उक्तिव्यक्तिप्रकरण', ज्योतिरीश्वर ठक्कुर के 'वर्णरत्नाकर' जैसे सर्वथा असाहित्यिक ग्रंथों और नाथपंथी साधुओं की अप्रामाणिक रचनाओं तक को तरजीह देते दिखाई देते हैं । इसका कारण यह है कि पुरानी हिंदी की इतनी कम सामग्री हमें उपलब्ध है कि इस समय की जो कुछ छुटपुट रचनायें मिलती हैं, उनकी रक्षा
और उनका अध्ययन तत्कालीन भाषा और साहित्य की जानकारी के लिए बहुमूल्य समझा जाता रहा है। विद्यापति से पूर्व की हिंदी-जिसे मोटे तौर पर पुरानी हिंदी कहा जा सकता है - का साहित्यिक इतिहास विशेष स्पष्ट नहीं है। इस काल की अधिकांश रचनायें ऐसी हैं, जिनसे परवर्ती गुजराती-राजस्थानी साहित्यिक परंपरा और भाषाशास्त्रीय विकास का अधिक संबंध है, मध्ययुगीन हिंदी भाषा और काव्यपरंपरा का कम । दूसरी और पुरानी हिंदी या आदिकालीन हिंदी रचनाओं की जो तालिका प्रस्तुत की जा सकती है, उसे पूर्णतः विश्वसनीय नहीं माना जाता । खुमानरासो, बीसलदेवरासो, परमाररासो जैसी रचनायें अप्रामाणिक और बाद की सिद्ध हो चुकी हैं और पृथ्वीराजरासो जैसी कृतियों को अभी भी सब लोग आदिकाल की रचनायें मानने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि इनको प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए पेश की गई दलीलें तर्कसम्मत और दमदार कम हैं, भावनात्मक अधिक । हिंदी का विद्वान् पृथ्वीराजरासो जैसे काव्य को पुराना मानने के मोह का संवरण नहीं कर पाता और जैसे तैसे इसे पुराना सिद्ध कर देना चाहता है। पर यह अभी तक समस्या ही बना है, और जब तक इस विषय में कोई सर्वसम्मत निर्णय न हो जाय, हमने पृथ्वीराजरासो को इस काल की महत्त्वपूर्ण कृतियों में मानना अनावश्यक समझा है। हमारा आग्रह केवल इतना है कि अंतिम निर्णय न होने तक इसको पूरी तरह आदिकालीन काव्य मानने पर विशेष जोर न दिया जाय । ऐसी स्थिति में पुरानी हिंदी के प्रामाणिक साहित्यिक ग्रंथों में प्राकृतपैंगलम् का महत्त्व और बढ़ जाता है, जो एक ओर पुरानी हिंदी भाषा, दूसरी और साहित्यिक परम्परा, और तीसरी ओर छंदों के परिवेश का अध्ययन करने के लिए बहुमूल्य ग्रंथ सिद्ध होता है ।
प्राकृतपैंगलम् एक संग्रह ग्रन्थ है, फिर भी इसमें उसके संग्रह से पूर्व की दो-तीन शताब्दियों तक की साहित्यिक भाषाशैली का परिचय मिलता है। इस ग्रन्थ की भाषा परवर्ती अपभ्रंश का वह रूप है, जिसे 'अवहट्ठ' कहा जाता रहा है । मध्ययुगीन भारतीय आर्य भाषा के कलेवर को छोड़कर जब देश्य भाषायें नवीन रूप में अवतरित होने को तैयार हो रही थीं, उनके पुराने रूप, विभक्तियाँ, आदि घिस कर नये रूप में विकसित होने लगी थीं, उस समय की संक्रांतिकालीन हिंदी का रूप प्राकृतपैंगलम् की भाषा में देखने को मिलता है। यह रूप इतना रूढ और पुरातन है कि अतिप्राचीन गुजराती, राजस्थानी और बँगला तक के चिह्न भी यहाँ मिल जाते हैं और डा० मजूमदार तो इसकी भाषा को पुरानी बँगला तक घोषित कर चुके थे । पर इतना होते हुए भी समग्र रूप में इसकी शैली जिस देश्य भाषा की भूमि पर टिकी है, वह मध्यदेशीय नव्य भारतीय आर्य भाषा का ही प्राचीन रूप है। इसकी भाषा में ऐसे प्राचीन रूप हैं, जो आगे चलकर पूरबी राजस्थानी और ब्रजभाषा में विकसित हुए हैं। वैसे कुछ छुटपुट प्रयोग यहाँ पूरबी हिंदी के भी मिल जाते हैं, किंतु ये प्रयोग विशेष नहीं है। प्राकृतपैंगलम् की भाषाशैली से हमें तात्कालिक साहित्यिक शैली का ही परिचय मिलता है, यह बोलचाल की भाषा कदापि नहीं है, किंतु यहाँ ऐसे छुटपुट कथ्य प्रयोग छिपे हैं, जो मध्यदेशीय बोलियों में विकसित हुए हैं।
पुरानी हिंदी काव्यपरंपरा में मुक्तक काव्यों की विविध प्रवृत्तियों और अभिव्यंजना शैलियों की जानकारी की दृष्टि से भी यह ग्रन्थ काफी मनोरंजक है। हमने बताया है कि मध्ययुगीन हिंदी कविता की नीतिपरक, स्तोत्रात्मक (भक्तिपरक), राजस्तुतिमय और शृंगारी मुक्तक रचनाओं का विकास किस तरह पुरानी हिंदी मुक्तकों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है । एक ओर संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के मुक्तक काव्यों और दूसरी ओर मध्ययुगीन हिंदी मुक्तक काव्यों के बीच की इस कड़ी को कतई नहीं भुलाया जा सकता । हिंदी काव्य की धारावाहिक परम्परा और प्रगति के अध्ययन के लिए इन फुटकल पद्यों का भी कम महत्त्व नहीं है। ये रचनायें उस समय की साहित्यिक प्रवृत्तियों का संकेत करने के अलम् है और इस बात का सहज ही अनुमान किया जा सकता है कि ऐसी कितनी बहुमूल्य रचनायें काल के गर्भ में कवलित हो गई होंगी।
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