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मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा के दो प्रमुख छंद 'चुपरि उबटि अन्हवाइकै नयन आँचे रुचि रुचि तिलक गोरोचन को कियो है । भ्रू पद अनूप मसिबिंदु, बारे बारे बार बिलसत सीस पर हेरि हरै हियो है। मोद-भरी गोद लिये लालति सुमित्रा देखि देव कहैं सब को सुकृत उपवियो है। मातु, पितु, प्रिय, परिजन, पुरजन धन्य पुन्यपुंज पेखि पेखि प्रेमरस पियो है।
तुलसी बिहाइ दसरथ दसचारि पुर ऐसे सुखजोग बिधि बिरच्यो न बियो है ॥१ इस विवेचन से महज इतना अनुमान होता है कि घनाक्षरी का विकास संस्कृत अनुष्टप् अथवा बँगला पयार से न होकर मध्यदेश में गाये जाने वाले किसी गेय अपभ्रंश तालच्छंद से हुआ है, पर यह तालच्छंद कौन सा था और इसका हर चरण कितनी मात्रा की बंदिश में गाया जाता था, इस बारे में कोई निर्णय इदमित्थं रूप में नहीं किया जा सकता। मेरे कुछ अनुमान हैं, जो संभवतः चौदहवीं-पन्द्रहवीं सदी की नवीन साहित्यिक सामग्री मिलने पर ही पुष्ट हो सकते हैं। घनाक्षरी के विकास का एक संकेत इसकी उच्चारणपद्धति से मिल सकता है । यद्यपि कवियों के यहाँ इसकी अनेक प्रणालियाँ प्रचलित हैं, तथापि इस छंद में पादांत अक्षर को छोड़कर अन्यत्र निश्चित लगात्मक पद्धति की पाबंदी नहीं पाई जाती । फलतः यह अनुमान हो सकता है कि इसके पहले ३० अक्षरों को गुरु या लघु होने पर भी एक ही मात्रिक समयसीमा में उच्चरित किया जाता रहा होगा । इसकी पुष्टि श्रीपंत के उद्धृत अंश से भी जा चुकी है। अपभ्रंश कवियों के यहाँ दीर्घ को लघु पढ़ने की पूरी स्वतंत्रता रही है, यहाँ तक कि संगीत की तरह यहाँ भी दो-तीन वर्णों को तेजी से एकमात्रिक पढ़ने तक की छूट दी गई है। संभवतः किसी ऐसे अपभ्रंश छंद से- जिसमें ३१ वर्णों की लघु-गुरु व्यवस्था अनियमित मानकर केवल एक एक मात्रा में ही एक एक वर्ण का उच्चारण किया जाता रहा हो और केवल चरण के अंतिम 'गुरु' को ही 'द्विमात्रिक' पढ़ा जाता हो- मध्ययुगीन घनाक्षरी का विकास हुआ हो । इस अनुमान के कुछ प्रमाण भी हमारे पास मौजूद हैं। गुजराती पिंगल में घनाक्षरी को तालच्छंद मानकर इसके पहले, पाँचवें, नवें, तेरहवें, सतरहवें, इक्कीसवें, पचीसवें, उन्तीसवें अक्षर पर ताल दिये जाने का विधान है। इस प्रकार यह छंद चार चार अक्षरों के तालखंडों में विभक्त है । ये तालखंड चतुर्मात्रिक अथवा अष्टमात्रिक रहे होंगे । मनहरण में अंतिम त्र्यक्षर तालखंड को भी मात्रा-प्रस्तार की दृष्टि से अन्य तालखंडों के बराबर वजन का बनाकर गाया जायेगा । रूप घनाक्षरी (३२ वर्ण) में अंतिम तालखंड भी चतुरक्षर ही होता है । इस आधार पर श्रीरामनारायण पाठक की एक कल्पना यह भी है कि इन दोनों छन्दों में मूल छन्द रूप घनाक्षरी (जिसे वे केवल घनाक्षरी कहते हैं) है, और उसी से मनहर का विकास हुआ है :- 'घनाक्षरी पूरी बत्रीसी रचना छे, अने तेना अंत्य संधि खण्डित थई तेमांथी मनहर थयेलो छे' । श्री पाठक गुजराती में घनाक्षरी के पठनप्रकार का हवाला देकर घनाक्षरी के हर चरण को ६४ मात्रा की बंदिश में पढ़े जाने का संकेत करते हैं :
'आमां लघुगुरुनो क्रम नथी ए साचं पण अहीं दरेक अक्षर बे मात्रानो थई रहे छे. घनाक्षरीना अंत्य संधिओ खंडित थतां त्यां गुरु आवश्यक बने छे तेनुं कारण ए गुरु प्लुत थई खंडित अक्षर नी बे मात्रा पूरी शके ए छे. मने बराबर याद छे के हुं गुजराती शाळानां नीचलां धोरणोनां भणतो त्यारे अमने मनहरनुं पठन दरेक अक्षर बे मात्रानो थाय ए रीते ज शीखवता. अने ए अमने बहु कंटाळा भरेळु लागतुं ।४
श्री पाठक के संकेत से हम यह कल्पना कर सकते हैं कि गुजराती में इसके हर अक्षर को द्विमात्रिक पढने की प्रणाली पाई जाने पर भी मूलतः प्राचीन कवि इसके हर अक्षर को एकमात्रिक ही पढ़ते रहे होंगे और इस तरह घनाक्षरी का गहरा ताल्लुक किसी ३२ मात्रा की बंदिश वाले आठ चतुर्मात्रिक तालखण्डों में गाये जानेवाले अपभ्रंश छन्द से जान १. गीतावली (बालकांड) पद १० (तुलसीग्रंथावली, दूसरा खंड, पृ० २२९) २. प्रा० पैं० १.८ ३. दलपतराम अक्षरसंख्या प्रमाणे छंदोना क्रम राखे छे. एटले एमना पिंगलमां मनहर पहेलो आव्यो त्यां एमने ए लक्षण कडं, ते
पछीथी आवता घनाक्षरीमा पण समजी लेवानु. दलपतरामे तालनां स्थानो कह्यां नथी, पण बन्नेमा पहेला अक्षरथी शरू करी पछी चार चार अक्षरे ताल मूक्यो छे, एटले चार चार अक्षरे ताल छे एम समजवायूँ. ए स्थिति उपरथी आपणे कही शकीए के आ
आवृत्तसंधि मेळवाळो छन्द छे, अने तेनो सन्धि चतुरक्षर छे । - बृहत् पिंगल पृ० ५५०
४. वही पृ० ५५२ Jain Education International
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