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मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरंपरा के दो प्रमुख छंद
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भी छन्द बन गये जो मात्रिक दृष्टि से ८ चतुष्कल से न बन कर ८ पंचकलों (यगण 155, रगण 515, अथवा तगण 55 1 ) से बने हैं। यह विकास स्पष्टतः बाद में हुआ है, और 'भुजंग', 'गंगोदक' तथा 'आभार' जैसे २४ वर्णों (किंतु ४० मात्राओं) से बने सवैया छन्दों के उदय में केवल वर्णों की संख्यागत समानता ही प्रमुख प्रेरक तत्त्व है। 'वाम' छन्द 'मुक्तहरा' का ही वह विकास है, जहाँ पादांत में लयपरिवर्तन करने के लिये 'लघु' के स्थान पर 'गुरु' वर्ण की अपेक्षा हुई है और फलतः अंतिम गण 'जगण' (151) के स्थान पर 'वगण (155) प्रयोग किया गया है। ठीक इसी प्रवृत्ति के कारण 'किरीट' सवैया का गुर्वंत विकास 'अरसात' हो गया है, जिसमें अंतिम लघ्वंतगण 'भगण' (SII) के स्थान पर 'रगण' (SIS) का प्रयोग किया गया है। स्पष्ट है कि पादांत में लध्वंत लय वाले 'मुक्तहय' और 'किरीट' छन्दों के ही गुर्वत लय वाले विकास क्रमशः 'वाम' तथा 'अरसात' सवैया है वर्णिक भार को बनाये रखकर छन्द की लय को गुर्वत करने के कारण ही ये दोनों छन्द ३२ मात्रा की बजाय ३३ मात्रा वाले बन गये हैं। इसी परिपाटी से, चकोर और मत्तगयंद सवैया का विकास किरीट से ही हुआ है, जहाँ प्रथम में अन्तिम चतुष्कल गण के स्थान पर लघ्वंत त्रिकल (SI) की योजना कर मात्रा- भार और वर्णिक भार दोनों में एक एक मात्रा और एक एक वर्ण की कमी कर दी गई है, जब कि मत्तगयंद में चकोर का ही गुर्वत रूप है, जहाँ मात्राभार मूल किरीट सवैया का ही बना रहा है; भेद सिर्फ इतना है कि यहाँ अन्तिम चतुष्कल 'भगणात्मक' न होकर 'गुरुद्वय' (55) से बना है। इसी तरह 'सुमुखी' सवैया 'मुक्तहरा' का ही परवर्ती विकास है, जिसमें पादांत लघु को हटा कर 'जगण' (151) के स्थान पर केवल गुर्वत त्रिकल (15) का प्रयोग किया गया है। अब केवल 'सुन्दरी' सवैया बच रहा है। यह छंद प्राकृतपैंगलम् में उपलब्ध है। इसकी वर्णिक गणव्यवस्था को स्पष्टतः ८ चतुष्कलों में बाँटा जा सकता है :
115, 115, 511, 115, 55, 115, 115, 115.
स्पष्टतः 'सुन्दरी' छंद 'दुर्मिला' की तरह ही ८ चतुष्कल गणों के आधार पर बना है। किंतु 'दुर्मिला' में आठों गण 'सगणात्मक' है, यहाँ तृतीय और पंचम विषम चतुष्कलों की लय भिन्न है, तृतीय चतुष्कल 'भगणात्मक' (SII) है, पंचम चतुष्कल 'गुरुद्वयात्मक' ( 55 ) । त्र्यक्षर सगण के स्थान पर पाँचवें चतुष्कल में द्वयक्षर गुरुद्वय (SS) की स्थापना के कारण इस छन्द की लय बदल जाती है। इस परिवर्तन से यह छंद २४ वर्णों के स्थान पर केवल २३ वर्णों का बन गया है, किंतु इस छंद का मूल मात्रिक भार वही बना रहा है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि वर्णिक सवैया छंद के विविध भेदों का मूल उत्स ३२ मात्रा वाले वे मात्रिक छन्द हैं, जिनका अवशेष आज भी हमें ३१ और ३२ मात्रा वाले मात्रिक छंदों में दिखाई पड़ता है।
डा० हजारी प्रसाद द्विवेदी ने 'हिंदी साहित्य के आदिकाल' में सवैया का विकास किसी न किसी संस्कृत वर्णिक वृत्त से जोड़ने की कल्पना की थी, यह संस्कृत वृत्त कौन सा है, इसका वे कोई निर्देश नहीं करते । द्विवेदी जी के 'संधान' के आधार पर डा० नामवरसिंह ने सवैया से संबद्ध संस्कृत वर्णिक वृत्त का 'अनुसंधान' भी कर लिया है। वे सवैया को दो त्रोटक छंदों का विकसित रूप मानते कहते हैं :
" सवैया स्पष्ट रूप से वर्णिक गणवृत्त है, इसलिये उसकी प्राचीनता अनिवार्य है और संस्कृत में ही उसका मूल उत्स मिलना चाहिए । यह तो सही है कि आठ गण के चार चरणों का ऐसा कोई वर्णिक वृत्त संस्कृत में नहीं है, लेकिन इसकी लंबाई देखकर प्रतीत होता है कि यह संस्कृत के किसी वर्णिक वृत्त के गणों को द्विगुणित करके बनाया गया है । संस्कृत का जो वर्णिक वृत्त द्विगुणित किये जाने पर आसानी से दुर्मिल सवैया हो जाता है, वह है चार सगण वाला त्रोटक छन्द | १२
भाई नामवरसिंह ने 'पृथ्वीराजरासो' के 'शशिव्रता विवाह' प्रसंग से दो त्रोटक एक साथ रखकर उन्हें दुर्मिल सवैया समझ लेने की सलाह दी है, पर त्रोटक छंदों को द्विगुणित कर देने पर भी इसमें सवैया की गति, लय, और गूँज नहीं आ पाती । उनका दो त्रोटकों से बनाया गया कल्पित सवैया यों है
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१. कवित्त सवैया की प्रथा कब चली, यह कहना भी कठिन है। ये ब्रजभाषा के अपने संस्कृत वृत्तों में मिल भी जाता है, पर कवित्त कुछ अचानक ही आ धमकता है । २. नामवरसिंह : हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग पृ० ३०४
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छंद हैं। सवैया का संधान तो कथंचिद
हिंदी साहित्य का आदिकाल पृ० १०२
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