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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ६४३ (छन्दार्णव ७.४०-४१) आदि सभी मध्ययुगीन लेखकों ने 'सिंहावलोकन' रीति को जरूरी माना है। (सिंहविलोकन रीति दै, दोहा पर रोलाहि भिखारीदास ७.४०) डिंगल कवियों के यहाँ कुंडलिया के ढंग पर और भी भेद बना लिये गये हैं। 'शुद्ध कुंडलियो' के अतिरिक्त वहाँ 'कुण्डलियो राजवट' और 'कुण्डलियो दोहाळ' ये दो भेद वर्णित हैं । 'कुण्डलियो राजवट' में दोहा के बाद चार चरण रोला और फिर दो चरण उल्लाला के पाये जाते हैं, और प्रथम और अंतिम पद का तथा दोहा के चतुर्थ चरण और रोला के प्रथम यति- खंड का सिंहावलोकन रीति से निबंधन होता है । 'कुंडलियो दोहाळ' में उक्त 'राजवट' वाले भेद से यह अन्तर है कि इसमें दोहे के बाद रोला और फिर एक दोहा प्रयुक्त होता है। इसकी अन्य विशेषता यह है कि प्रथम दोहे का पूर्वार्ध दूसरे दोहे के उत्तरार्ध के रूप में सिंहावलोकन रीति से प्रयुक्त होता है। मध्ययुगीन हिंदी काव्यपरम्परा में कुण्डलिया काफी प्रसिद्ध छंद रहा है। कुछ लोगों ने तो गोस्वामी तुलसीदास रचित 'कुण्डलिया रामायण' तक को ढूंढ निकाला है, पर अधिकांश विद्वान् इस ग्रन्थ को गोस्वामीजी रचित नहीं मानते। बाद में गिरिधर कविराय और दीनदयाल के अन्योक्ति परक तथा नीतिमय कुण्डलिया हिन्दी में काफी मशहूर हैं। छप्पय $ २०१. छप्पय छंद अपभ्रंश का बड़ा पुराना छंद है। प्राकृतपैंगलम् में इसे 'रोला उल्लाला' का मिश्रण कहा गया है । छप्पय के अंगभूत रोला छंद की गणव्यवस्था '२+४+४+४+४+४+४+ २ ( II ) ' बताई गई है और इसके हर चरण में ११, १३ पर यति होनी चाहिए। इसके बाद २८ २८ मात्रा के दो चरण उल्लाला छंद के होंगे, जहाँ १५ १३ पर यति होगी। इस छंद का सर्वप्रथम संकेत नंदिताढ्य के 'गाथालक्षण' में मिलता है। नंदिताढ्य ने इसे 'दिवड' (हिन्दी, दधौवा) छन्द कहा है, तथा इसे 'वत्थुअ' (समचतुष्पदी, गणव्यवस्था ४+४+५+५+२+२+२) तथा १५, १३ मात्रा वाले दो चरणों के द्विपदीखंड का मिश्रण कहा है। नंदिताढ्य में दूसरे छन्द का नाम नहीं मिलता। नंदिताढ्य का उदाहरण, जिसे प्राचीनतम छप्पय का रूप मान सकते हैं, निम्न है। : कुंभिकुंभविन्मह कवण क्षणकलसह उप्पम । इंदीवरदलसमह कवल नयणह सारिच्छम || पारिजायलयनिभह भुअह कहि कवणह चंगिम | सीअदेवि रुवस्स तुज्झ कसु वन्त्रिण अग्गिम ॥ इअ भइ राउ दसरहतण्ठ वणि वणि विलवंत करुणु । अहवा न वुज्झ जं जीवियउ जं जि तं जि विहियकरणु ॥ 'वस्तुवदनक' तथा 'उल्लाला' (कर्पूर या कुंकुम) के मिश्रण से बने छप्पय का संकेत हेमचन्द्र ने ही 'द्विभंगिका' छन्दों के संबंध में किया है। वे बताते हैं कि ये छन्द 'मागधों' (भट्ट कवियों) के यहाँ 'दिवड्ड', 'छप्पय' या 'काव्य' इन अनेक नामों से प्रसिद्ध है । बाद में कविदर्पणकार ने भी इसका संकेत किया। अपभ्रंश कवियों के मुक्तक काव्यों १. सियवर राज समापिया, पाट अवध लव पेख बंधव सुत विशेष, दोय सुत भरत सुदत्तिय अंसी लिखमण उभय, अंगद नगरी अंगद नै कनवज सुबाहु सत्रुघात करि पति मथुरा इम । कुस नै समप कुसावती, बंधव सुताँ विशेष ॥ तक्षक नै तखसली, पुकर नै पुक्कर बत्तिय ॥ चन्द्रकेत चंद्रवती, सत्रघण सुर्ती सुखद नै ॥ थापिया । इण भाँत मंछ कह आठ ही सियवर राज समापिया ॥ २. रूपक यह रघुनाथ, पिंगल गीत प्रमाण । कहियो मंछाराम कवि, जोधनगर जग जाँण ॥ जोधनगर जग जाँण, बास गूँदी बिसतारा । बगसीराम सुजान, जात सेवग कुँवारा ॥ संवत ठारै सतक बरस तेसठो बचाणों । सुकल भादवी दसम वार ससिहर बरताणों ॥ मत अनुसार मैं कह्यो, सुध कर लियो सुजाण रूपक यह रघुनाथ, पिंगळ गीत प्रमाण ॥ - Jain Education International For Private & Personal Use Only - ३. प्रा० ० १.१०५ पनरसतेरसपनरसतेरसजुत्तो दिवढछंदो ॥ गाधालक्षण पद्म ८२-८३ ४. दो वेया सिहिजुयल जुसाई दुनिठ दुगं च वत्थुयओ ५. एताश्च वस्तुवदनककर्पूराद्याः द्विभंगिकाः षट्पदा इति, सार्धच्छंदांसि इति च सामान्याभिधानेन मागधानां प्रसिद्धाः । यदाहजवत्थुआण हे उद्याला छंदयंमि किज्वंति दिवडच्छंदयछप्पयकव्वाई ताई बुच्चति ॥' इत्यादि । छन्दोनुशासन सूत्र ४.७९ की वृत्ति — रघुनाथरूपक पृ० २८० वही पृ० २८२ www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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