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प्राकृतपैंगलम् विषम पदे करि सोळ कळा पछि, सममां चौद सदा धरजो । प्रथम उपर पछी श्रुति श्रुति चडता, तालो चौबोले करजो ॥ त्रीश कलानां बेदल छे पण, चार पदे बोलायां छे ।
चतुर्वचा वळि कोई कहे छे, चतुष्पथा चौयाला छे । (३५-३६)"१ किंतु यह छंद गुजराती में बहुत कम प्रचलित है। श्रीरामनारायण पाठक ने लिखा है कि "आ छंद गुजरातीमां बहु वपरातो नथी, पण तेनुं दृष्टान्त तरीके महत्त्व छे" ।
श्री वेलणकर चौबोला को प्राकृतपैंगलम् की तरह चतुष्पदी न मानकर अर्धसमा षट्पदी मानते हैं । वे इसकी मात्राव्यवस्था ८,८; १४ x २ मानते हैं। किंतु चौबोला में 'घत्ता' जैसी मूल षटपदियों की तरह आभ्यंतर तुक नहीं मिलती, यदि यहाँ भी 'क-ख, घ-ङ, ग-च' (१-२, ४-५, ३-६) वाली तुकें नियमत: मिलतीं, तो इसे षट्पदी माना जा सकता था । यह छंद पुरानी परंपरा में केवल प्राकृतपैंगलम् में ही मिलता है और यहाँ लक्षण और उदाहरण दोनों जगह आभ्यंतर तुक नहीं मिलती । लक्षणपद्य में तुक चतुष्पदी के ढंग पर 'क-ग', 'ख-घ' है, उदाहरण पद्य में केवल एक तुक है, जो 'ख-घ' पद्धति की है। हमें 'चौबोला' को अर्धसमा चतुष्पदी ही मानना अभीष्ट है, षट्पदी नहीं। श्री वेलणकर की तालव्यवस्था हमारे ढंग पर है, पर उससे भी वे इसके षट्पदीत्व का संकेत करते हैं ।२ फर्क इतना है कि हम इसमें चार चार मात्रा पर ताल मानते हैं, वे इसमें आठ आठ मात्रा के बाद ताल मानते हैं । मिश्रित छंद कुंडलिया
२००. कुंडलिया, दोहा और रोला के मिश्रण से बना छन्द है, जिसे पुराने छन्दःशास्त्रियों के शब्दों में एक प्रकार का 'द्विभङ्गी' छन्द कहा जा सकता है । कुंडलिया जैसा मिश्रित छन्द स्वयंभू और हेमचन्द्र के यहाँ नहीं मिलता । कविदर्पणकार ने अनेक द्विभंगियों का जिक्र करते समय 'दोहा' और 'वस्तुवदनक' (२४ मात्रिक सम चतुष्पदी, गण व्यवस्था-६, ४, ४, ४, ६) के मिश्रित छन्द का संकेत किया है, पर वे उसे कोई खास नाम नहीं देते । ऐसा जान पड़ता है, भट्ट कवियों के यहाँ ही यह छन्द विशेष प्रचलित रहा है, और वे ही इसे 'कुंडलिया' कहते थे । प्राकृतपैंगलम् के अलावा सिर्फ रत्नशेखर ने ही इसका संकेत किया है। रत्नशेखर 'कुंडलिया' के अतिरिक्त इसी के वजन पर नाम दिये गये 'कुण्डलिनी' छन्द का भी जिक्र करते हैं, जिसमें 'गाथा+रोला (काव्य)' का मिश्रण पाया जाता है। प्राकृतपैंगलम्
और छन्दःकोश दोनों ही 'कुण्डलिया' के लक्षण में 'उल्लाल' से संयुक्त' (उल्लालह संजुत्त) होने का जिक्र करते हैं । इस संबंध में यह जान लेना होगा कि 'उल्लाल' शब्द का अर्थ यहाँ 'उल्लाल छन्द' न होकर दोहा के अंतिम चरण की पुनरुक्ति से है, जिसे चारण कवियों के यहाँ सिंहावलोकन कहा जाता है ।
कुण्डलिया छन्द में दोहे के चतुर्थ चरण को रोला के प्रथम चरण के प्रथम यत्यंश के रूप में पुनः निबद्ध किया जाता है, और दोहा के प्रथम पद को रोला के अन्त में रखा जाता है । मध्ययुगीन हिंदी काव्य-परंपरा में कुण्डलिया की रचना में इन दोनों बातों का ध्यान सदा रखा गया है। राजमल्ल (पद्य १२४), केशवदास (छन्दमाला २.४०), भिखारीदास १. बृहत् पिंगल पृ० ४०२ पर उद्धृत २. Caubola (8, 8, 14 x 2) is sung in the same Tala as the Ghatta but its 1st beat occurs on the 1st Matra
instead of the 3rd. The 2nd beat occurs on the 1st Matra of the second line while the 3rd and the 4th occur on the 1st and 9th Matras of the third line. At the end of the 3rd and the 6th lines, i.e., at the end of each half there is a pause of 2 Matras which would secure the usual distance of 8 matras between the 4th beat of the preceeding half and the initial beat of the succeeding half.
- Apabhramsa Metres I $ 25 ३. प्रा० पैं० १.१४६-१४७ ४. दोहा छंदु जि पढम पढि कव्वह अद्ध णिरुत्त । तं कुंडलिया बुह मुणहु, उल्लालइ संजुत्त ।।
उल्लालइ संजुत्त जमगसुद्धउ सलहिज्जइ । चउवाल सउवि मत्त सुदिढ पइ पंथ रइज्जइ ।
उल्लालइ संजुत्त लहइ सो निम्मलसोहा । तं कुंडलिआ छंदु पढम जहि पढियइ दोहा ।। - छंदःकोश ३१ ५. छंद:कोश पद्य ३८
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