________________
अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द
६३३ 'मदनगृह' के केवल उसी भेद को 'मदनमनोहर' कहना इष्ट था, जिसमें प्रतिचरण ४० मात्रा (१०, ८, १४, ८) के अलावा उसके साथ ३० अक्षरों की बंदिश भी पाई जाती हो ।
छंदविनोद, छन्दार्णव और छन्दोमंजरी में यह छन्द निरूपित है। 'छन्दविनोद' का लक्षण प्राकृतपैंगलम् के ही अनुसार है। श्रीधरकवि ने इसे 'मैंनहरा' नाम दिया है, जो 'मदनगृह' का ही तद्भव रूप है। छंदार्णव के अनुसार 'मदनहरा' (मदनगृह) का लक्षण यह है कि 'तिरभंगी' छन्द के प्रत्येक चरण में ८ मात्रा जोड देने पर 'मदनहरा' छन्द हो जाता है (तिरभंगी पर आठ पुनि मदनहरा उर आनि-छन्दार्णव ७.३९) । भिखारीदास के उदाहरणपद्य में १०, ८, १४, ८ के यतिखंडों में आभ्यंतर तुक की नियत व्यवस्था पाई जाती है ।
मदनगृह छन्द वस्तुत: 'पद्मावती' आदि उक्त छन्दों का ही विस्तृत रूप है, जिसमें प्रतिचरण आठ मात्रा अधिक जोड़ दी गई हैं । इसकी तालव्यवस्था भी ठीक वैसी ही है, जहाँ पहली दो मात्रा छोड़कर तीसरी मात्रा से हर चार मात्रा के बाद ताल दी जाती है । डा. वेलणकर 'मदनगृह' को षोडशपदी छन्द मानते हैं। उनके मतानुसार इसका प्रत्येक यतिखंड मूलतः एक स्वतंत्र चरण है । ऐतिहासिक विकासक्रम की दृष्टि से 'मदनगृह' षोडशपदी था, किन्तु मध्ययुगीन हिन्दी काव्यपरम्परा में इसे चतुष्पदी ही मानना ठीक जान पड़ता है। सममात्रिक षट्पदी रसिका
१९५. प्राकृतपैंगलम् में वर्णित 'रसिका' सममात्रिक षट्पदी छंद है। इसके प्रत्येक चरण में सर्वलघु ११ मात्रायें पाई जाती हैं, तथा गणव्यवस्था '४+४+३' (द्विजवर + द्विजवर + त्रिलघु) है। यह छंद मूलत: या तो एकादशमात्रिक तीन द्विपदियों, या एकादशमात्रिक डेढ़ समचतुष्पदी से बना है। इस तरह के किसी छंद का संकेत पुराने अपभ्रंश छंदःशास्त्री नहीं करते । हिंदी कवियों में केशवदास के यहाँ यह छंद है और स्पष्टतः उन्होंने इसे 'प्राकृतपैंगलम्' से ही लिया है। श्रीधर कवि का लक्षणोदाहरण निम्न है :
'इक दस कल सुभ वरन, इहि विधि करू सब चरन । षटचरन रचहु सरस, तहँ रसिक सुरस बरस ॥
गुनि श्रवन सुखद धरहु, पुनि लघु लघु सब करहु ॥ (छंदविनोद २.८) भिखारीदास के लक्षण से यह पता चलता है कि 'रसिका' छंद का मूल लक्षण केवल छः चरणों में प्रतिचरण १. यह मदनमनोहर, आवत ता घर, उठि आगे कै लै सजनी, सुखदै रजनी,
सुनि राधाकरनी, हरि अभिमानी, जानी समान सब लायक, अरु बहुनायक । सुखसाधन साधहि, मौन समाधहि, पतिहिं अराधहिं रामथली, सबभाँतिभली प्रिय कै सँग बसिकै, रति रस रसिकै, .... गोपसुता, गुनग्रामयुता ।। - छंदमाला २.४८ केशवग्रंथावली (खंड २) में त्रुटित अंश अन्त में संकेतित किया गया है, पर 'गोपसुता' 'गुनग्रामयुता' की तृतीय-चतुर्थ यतिखंडों वाली तुक व्यवस्था के अनुसार मेरी समझ में त्रुटित अंश द्वितीय खंड के बिलकुल बाद के 'गोपसुता' से पहले तृतीय यतिखंड
के छ: अक्षर का (आठमात्रिक) पद या पदसमूह जान पड़ता है । यह अंश 'मोदभरी यह' के वजन का होना चाहिए । २. छंदविनोद २.३९ ३. छन्दार्णव ७.३१ ४. तजि वे श्रुति श्रुति पर ताल धरो प्रभु,
वरणवतां दिल केम करो, भव तुरत तरो । - दलपतपिंगल २.१३५ 4. The last and ninth metre of this kind is Madanagriha. It is the same as any one of the above
mentioned six, but with an addition of further 8 matras at the end of each pada. It is as a matter
of fact a Sodasapadi like Tribhangi. - Apabhramsa Metres I $ 29 ६. दिअवरगण धरि जुअल, पुण विअ तिअ लहु पअल ।
इम विहि विहु छउ पअणि, जिम सुहइ सुससि रअणि ॥ इह रसिअउ मिअणअणि, ऐ अदह कल गअगमणि ॥ - प्रा० पैं० १.८६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org