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________________ अपभ्रंश और पुरानी हिंदी के छन्द ६२१ १८ वीं मात्रा पर आभ्यंतर तुक की पूरी पाबंदी पाई जाती है । गोस्वामीजीने प्राकृतपैंगलम् के निर्देशानुसार इसका प्रयोग १६ चरणों (४ छन्दों) में किया है; एकाकी छन्द के रूप में नहीं। इनमें से एक पद्य यह है + भए प्रकट कृपाला / दीनदयाला हरषित महतारी / मुनिमन हारी लोचन अभिरामा भूषन बनमाला गोस्वामी जी ने 'चौपैया' के चारों चरणों की तुक एक ही रक्खी है। केशवदास के 'चौपैया' (चतुष्पदी) छन्दों में पादांत तुक व्यवस्था चारों चरणों में एक न होकर 'क-ख' (a b) ग-घ (c d) वाली पद्धति की है। केशव की चतुष्पदियों में भी यतिसंबंधी आभ्यंतर तुक सर्वत्र नियमतः उपलब्ध होती है । हम निम्न निदर्शन ले सकते हैं * / कौसल्या हितकारी, / अद्भुत रूप बिचारी । / तनु घनस्यामा / निज आयुध भुजचारी, / नयन बिसाला / सोभासिंधु खरारी ॥ (बालकांड) भृगुनंदन सुनिये, मन महँ गुनिये, रघुनंदन निरदोषी, निजु ये अविकारी, सब सुखकारी, सबहीं विधि संतोषी । एकै तुम दोऊ, और न कोऊ, एकै नाम कहायो, आयुर्बल खूट्यो, धनुष जू टूट्यो, मैं तन मन सुख पायो । (रामचंद्रिका ७.४५ ) आधुनिक हिंदी काव्यपरंपरा में 'चौपैया' नहीं प्रयुक्त हुआ है। इसका समानजातिक 'ताटंक' छंद जरूर मिलता है, किंतु दोनों की लय और गूँज यति व्यवस्था के भेद के कारण भिन्न है । श्री वेलणकर इसे भी मरहट्ठा की तरह अर्धसमा द्वादशपदी मानकर इसके प्रथम - चतुर्थ- सप्तम - दशम पदों में १० मात्रा, द्वितीय - पंचम - अष्टम-एकादश पदों में ८ मात्रा, तथा तृतीय षष्ठ- नवम द्वाद्वश पदों में १२ मात्रा मानते हैं। प्राकृतपैंगलम् तथा मध्ययुगीन हिंदी में तो इसे चतुष्पदी मानना ही हमें अभीष्ट है । पद्मावती $ १८८. प्राकृतपैंगलम् के अनुसार 'पद्मावती' ३२ मात्रा वाली सममात्रिक चतुष्पदी है। इसकी रचना में प्रत्येक चरण में ८ चतुर्मात्रिक गणों की व्यवस्था पाई जाती है; और ये चतुर्मात्रिक गण कर्ण (SS), करतल (IIS, सगण ), विप्र (IIII, सर्वलघु), चरण (SII, भगण) में से किसी तरह के हो सकते हैं। चतुर्मात्रिक गण के स्थान पर 'पयोधर' (ISI, जगण ) की रचना करना निषिद्ध है । इस प्रकार प्रत्येक चरण में जगणरहित ८ चतुर्मात्रिक गणों की रचना कर पद्मावती निबद्ध की जाती है। इस छन्द के यतिविधान का कोई संकेत प्राकृतपैंगलम् में नहीं मिलता किंतु उदाहरण पद्य (१. १४५) में स्पष्टतः १०, ८, १४ पर यति मिलती है और इन स्थानों पर आभ्यंतर तुक की व्यवस्था भी मिलती है, जो 'वंगाभंगा', 'धिट्ठा-कट्ठा', 'कंपा-झंपा', और 'राणा-पआणा' से स्पष्ट है। अपभ्रंश छन्दः परम्परा में यह छन्द प्राकृतपैंगलम् के पूर्व कहीं नहीं मिलता; छन्दः कोश में अवश्य इसका लक्षण दिया गया है । छन्दः कोश का लक्षण प्राकृतपैंगलम् के लक्षण से पूरी तरह मिलता है, सिर्फ पाठांतर का भेद है : ठवि पउमावत्ती ठाणं ठाणं चउमत्ता गण अट्ठा ये ध्रुव कन्ना करयल चलणे विप्पो चारे गण उक्किट्ठाये । जइ पडइ पओहर हरइ मणोहर पीडइ तह नायक्कतणूं, नयरहं उव्वासइ कवि निन्नासह छंदह लावइ दोस घणूं ॥ ३ दामोदर के 'वाणीभूषण' में सर्वप्रथम 'पद्मावती' छन्द की यतिव्यवस्था का संकेत मिलता है, और उनके १. Apabhramsa Metres. $ 26 २. भणु पउमावत्ती ठाणं ठाणं चउमत्ता गण अट्ठाआ, धुअ कण्णो करअलु विप्पो चरणो पाए पाअ उकिट्ठाआ । जइ पलइ पओहर किमइ मणोहर पीडइ तह णाअक्कगुणो पिअरह संतासइ कइ उव्वासइ इअ चंडालचरित गणो ॥ - प्रा. पैं० १. १४४ Jain Education International ३. छन्दः कोश पद्य ५० ४. इह दशवसुभुवनैर्भवति विरामः सकलाभिमतफलाय तदा, फणिनायकपिङ्गल भणितसुमङ्गलरसिकमनः संविहितमदा | For Private Personal Use Only वाणीभूषण १.७९ jainalibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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