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प्राकृतपैंगलम्
में अंतिम नियमतः 'सगण' ( 115 ) होता है', शेष तीन छंदों में ये चतुर्मात्रिक गण किसी भी तरह के हो सकते हैं । इन षोडशमात्रिक प्रस्तार के आधार पर रचित गीतों के अलावा डिंगल में अर्धसम मात्रिक गीत भी मिलते हैं । इनमें 'छोटो साँणोर' और इसके और कई भेद प्रसिद्ध हैं । 'छोटा साँणोर' के विषम पदों में १६ मात्राएँ और सम चरणों के अंत में गुरु हो तो १४ मात्राएँ और लघु हो तो १५ मात्राएँ होती हैं। प्रथम द्वाले के प्रथम पद में १९ मात्रा होंगी। जैसे,
एक दिन अमर सकल मिल आया, करी अरज सांभल करतार ।
राज बिना मारै कुण रावण, भूरो कवण उतारै भार ॥ ( रघु० ४.४.१)
स्पष्ट है कि यह गीत वक्ष्यमाण अर्धसम मात्रिक छन्द 'चौबोला, ( १६, १४ : १६, १४) के वजन पर बनाया गया है। प्रथम द्वाले के अतिरिक्त शेष पद्मों के प्रथम चरण में सर्वत्र १६ मात्रा ही होंगी, केवल उक्त पहले द्वाले में ही प्रथम चरण १९ मात्रा का है इन अधिक मात्राओं का कारण श्री रामनारायण पाठक गीत की ललकार मानते हैं। "डिंगलनी एक खासियत अहीं ज, नोंधवी जोईए. ते ए के तेमां घणा छंदोमां आद्य द्वालामां एटले कडीमां बे के त्रण मात्राओ वधारानी आवे छे. ए आद्य कडीमां ज आवे छे. पछीनी कडीओमां आवती नथी. गीतनो ललकार शरू करवा ए वधारानी मात्रा गद्यमा बोलाती हशे एम हुं मानुं छें २
अनेक मात्रिक छंदों का इसी क्रम से परिवर्तन विभिन्न नामों से डिंगल गीतों में प्रचलित है। उदाहरण के लिए 'गघ्घर निसाणी' नामक गीत ले सकते हैं । यह स्पष्टतः दुर्मिला और पद्मावती की तरह ३२ मात्रिक सम चतुष्पदी है, जिसमें उन्हीं की तरह १०, ८, १४ पर यति पाई जाती है। फर्क यह है कि 'गम्बर निसाणी' में अंतमें 'मगण' ( 355 ) की व्यवस्था आवश्यक है। यतिखंडों के स्थान पर आभ्यंतर तुक की व्यवस्था भी इस गीत में 'पद्मावती' और 'दुर्मिल' की ही तरह मिलती है ।
जिण पुर चुपराजै, अवरन गाजै, केवल मेघ घुरायंदा । सब रहे ठिकाणे, हुकम प्रमाणे, मारुत चले चलाइंदा ॥
कालाद अराणें, भय नहिं आणें, भय दुज दीना लायंदा । राघव राजिंदा, अवधति नंदा, अँसा राज दिया यंदा ॥ ४
डिंगल गीतों का विशद विवेचन करना यहाँ अप्रासंगिक होगा। हमारा संकेत सिर्फ इतना है कि अपभ्रंश के वे कई छन्द जो मध्ययुगीन काव्यपरंपरा में पाये जाते हैं, किसी दूसरे नाम या रूप में डिंगल गीतों में भी सुरक्षित हैं ।
१. यथा, दीसै भुज बीस सीसदसै, कह वर ज्यां लग राम कसै । दरसी भुज बीसे सीसदसै, कोपे जद केवल राम कैसे ॥
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२. बृहत् पिंगल पृ० ४७८ ।
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३. रघुनाथरूपक पृ० २७१ । ४. वही पृ० २७१ ।
वही ७.११.४
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