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________________ ५५४ प्राकृतपैंगलम् इन छंदों का विशेष विवरण अनुशीलन के 'हिंदी सवैया का उद्भव और विकास' शीर्षक अंश में द्रष्टव्य है। डा० वेलणकर के मत से हेमचन्द्र द्वारा वर्णित अनेक बड़ी द्विपदियाँ मूलतः षट्पदियाँ हैं तथा वे तालवृत्तों के रूप में मजे से गाई जा सकती हैं। अंतिम परिच्छेद में हेमचन्द्र ने छ: प्रकार के छन्दःप्रत्ययों का विवरण दिया है, जो हमारे लिये विशेष महत्त्व के नहीं जान पड़ते । हेमचन्द्र के छन्दोविवरण से ज्ञात होता है कि वे मात्रिक वृत्तों तथा तालवृत्तों में कोई भेद नहीं करते। वस्तुतः सभी प्राकृत तथा अपभ्रंश छन्दःशास्त्रियों ने इस भेद पर ध्यान नहीं दिया है, यद्यपि व्यावहारिक रूप में अपभ्रंश गायकों या बंदीजनों के द्वारा यह भेद माना जाता था । वैसे अपभ्रंश के छंदों में मूल तालच्छंद बहुत कम थे तथा धीरे धीरे वे मात्रिक छन्दों में ही अन्तर्भुक्त हो गये और उनकी निजी विशेषतायें लुप्त हो गई । (६) अज्ञात लेखक का “कविदर्पण" १५३. कविदर्पण के रचयिता का परिचय अप्राप्त है, किंतु यह रचना हेमचन्द्र के बाद की जान पड़ती है। डा० वेलणकर ने इसे जिनप्रभसूरि के द्वारा 'अजितशांतिस्तव' की टीका में उद्धृत छन्दोग्रन्थ 'कविदर्पण' से अभिन्न बताया है, तथा वहाँ उद्धृत छन्दोलक्षण संबंधी पद्य इसमें प्राप्त हैं । 'कविदर्पण' प्राकृत भाषा में निबद्ध है तथा इसके साथ संस्कृत वृत्ति भी उपलब्ध है। डा० वेलणकर ने मूल लेखक तथा वृत्तिकार को भिन्न भिन्न माना है । मूलग्रंथ में चूड़ालादोहक (२.२३) के प्रकरण में जिनसिंहसूरि; श्रीधवल (२.५७) के प्रकरण में हेमचन्द्र; द्विभंगी (२.५९) के प्रकरण में सूरप्रभसूरि, इसी छंद के प्रकरण में (२.६३) तिलकसूरि, तथा द्विपदीखंड (२.६५) के प्रकरण में रत्नावलीकार हर्षवर्धन को उद्धृत किया है। स्पष्ट है कि कविदर्पणकार हेमचन्द्र से परवर्ती है। टीकाकार ने हेमचन्द्र के 'छन्दोनुशासन' से अनेक लक्षणोदाहरण उद्धृत किये हैं, तथा एक अप्राप्त छन्दोग्रन्थ "छन्दःकन्दली" (२.२८, २९, ३२) से कतिपय पद्य उद्धृत किये हैं। यह ग्रन्थ "प्राकृतापभ्रंश छन्दःपरम्परा" का ग्रन्थ था । इसके अतिरिक्त वहाँ शूर, पिंगल, त्रिलोचनदास जैसे संस्कृत छन्द:शास्त्रियों तथा स्वयंभू, पादलिप्त तथा मनोरथ जैसे प्राकृत कवियों व छन्दःशास्त्रियों का भी संकेत मिलता है। कविदर्पण का रचनाकाल ईसा की १३वीं शती माना जा सकता है। सम्पूर्ण ग्रन्थ छ: उद्देशों में विभक्त है। प्रथम उद्देश्य में आरम्भ में पाँव मात्रागणों तथा आठ वर्णगणों का लक्षण है। इसी संबंध में वर्गों के गुरुत्व और लघुत्व और 'यति' के नियम का संकेत किया गया है। इसी संबंध में टीकाकार ने 'यति' के विषय में एक महत्त्वपूर्ण संकेत किया है। उसने बताया है कि संस्कृत वर्णवृत्तों में माण्डव्य, भरत, काश्यप तथा सैतव 'यति' का विधान आवश्यक नहीं मानते, किंतु जयदेव तथा पिंगल इसे आवश्यक मानते हैं । कविदर्पणकार स्वयं संस्कृत वृत्तों में 'यति' का विधान मानने के पक्ष में है। कविदर्पण का सबसे लंबा और महत्त्वपूर्ण उद्देश्य द्वितीय उद्देश है । इस उद्देश में मात्रावृत्तों का प्रकरण है । कविदर्पणकार ने स्वयम्भू तथा हेमचन्द्र की भाँति प्राकृत तथा अपभ्रंश मात्रावृत्तों को अलग अलग न लेकर उन्हें एक नये ढंग से वर्गीकृत किया है। उसने समस्त मात्रिक वृत्तों को चरणों में आधार पर ११ वर्गों में बाँटा है - द्विपदी, चतुष्पदी, पञ्चपदी, षट्पदी तथा अष्टपदियों को शुद्ध मात्रिक वृत्तों में लिया गया है; सप्तपदी, नवपदी, दशपदी, एकादशपदी, द्वादशपदी तथा षोडशपदी इन ६ भेदों को मिश्र छंदों (strophes) में लिया है, जहाँ एक से अधिक (दो या तीन) छंदों के मिश्रित f. Many of them are easily divisible into Satpadis of different length and are capable of being sung as the Tala vrttas. - Velankar : J. B. B. R. A. S. (1943) p. 29. २. Dr. Velankar : Apabhramsa Metres. (Matra Vrttas and Tala Vrttas). (Radha Kumuda Commemoration Volume. Part II) p. 1076 ३. यत्स्वयंभूः जयदेवपिंगला सक्कयंमि दुच्चिय जई समिच्छंति । मंडव्वभरहकासवसेयवपमुहा न इच्छंति ।। तत्र प्राकृतापभ्रंशच्छन्दसोः सर्वसम्मतैव यतिः । संस्कृतच्छन्दसि तु जयदेवपिंगलावेवेच्छतो यतिं माण्डव्यभरतकाश्यपसैतवादयस्तु नेच्छंति ॥ - Annals. B.O.R. (1934-35) p. 61 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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