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________________ संस्कृत, प्राकृतापभ्रंश और हिंदी छन्दःशास्त्र अडिला (वदनक तथा उपवदनक ही पादांत में यमक होने पर अडिला होगा) इसी को कुछ लोग दो चरणों में यमक होने पर 'अडिला' तथा चारों में होने पर 'मडिला' कहते हैं । इनमें 'मेघ' तथा 'विभ्रम' ये दोनों छन्द: मूलतः वर्णिक वृत्त है, मात्रिक वृत्त या ताल वृत्त नहीं, किंतु इनका प्रयोग अपभ्रंश में भी पाया जाता है। इसी परिच्छेद के अंत में 'धवल', 'मंगल' तथा 'फुल्लडक' नामक छन्दोभेदों का वर्णन किया गया है। उक्त सभी छन्दों के ये चारों भेद होते हैं, जो वस्तुतः वर्ण्य विषय से संबद्ध है। 'उत्साह' छंद में राजाओं की स्तुति की रचना करने पर वह 'उत्साहधवल' कहलाता है, तथा मंगलगान की रचना करने पर वह 'उत्साहमंगल' कहलाता है । यदि 'उत्साह' छंद में 'देवगान' निबद्ध हो, तो वही 'उत्साहफुल्लडक' कहलाएगा । साथ ही यह भी स्पष्ट है कि 'अडिला-मडिला' नाम वस्तुतः किसी भी षोडशमात्रिक या सप्तदशमात्रिक छंद के हो सकते हैं, जिनके अंत में दो या चारों चरणों में 'यमक' का प्रयोग हो । अतः ये नाम मूलतः तत्तत् छंद के धवल, मंगल या फुल्लडक वाले भेद विषयवस्तु से संबद्ध है तथा ये कोई स्वतन्त्र छंद न होने पर भी विषयानुसार नाम बदल लेते हैं । षष्ठ अध्याय में 'घत्ता' के अनेक प्रकार वर्णित है । 'घत्ता' वस्तुत: किसी एक छन्दोविशेष का नाम न होकर, किसी भी छन्द का नाम हो सकता है, जब कि वह संधि के आरंभ या कडवक के अंत में छन्दःपरिवर्तनार्थ प्रयुक्त किया जाय । इसके प्रत्येक चरण में ७ से १७ तक मात्रा हो सकती है तथा यह द्विपदी, चतुष्पदी एवं षट्पदी रूपों में से कोई सा हो सकता है । इनमे से जहाँ कडवक के अंत में प्रारब्ध अर्थ का उपसंहार किया जाय, चतुष्पदी या षट्पदी 'घत्ता' को दूसरा नाम भी दिया गया है, इस स्थिति में यह 'छड्डणिका' कहलाता है। इसी अध्याय में आगे ११० अन्तरसमा चतुष्पदियों का लक्षणोदाहरण निबद्ध हैं, तदनंतर ९ से १७ मात्रा तक की सर्वसम चतुष्पदियाँ वर्णित हैं । इसी अध्याय के अंत में 'पद्धडिका' (१६ मात्रा, ४+४+४+४) तथा 'रगडाध्रुवक' (१७ मात्रा, ३४४+५ या ६+२४४+३) का लक्षण दिया गया है। सप्तम अध्याय में द्विपदी छंद का विस्तार से वर्णन है। इसमें प्रथम कुंकुम तथा कर्पूर नामक द्विपदियों का वर्णन है, जो मागध छन्द-परम्परा में 'उल्लाला' कहलाते हैं । अपभ्रंश छंदःपरम्परा में इसके ये ही नाम प्रसिद्ध हैं। कर्पूर (२८ मात्रा, २x२+४+२x२+। (एक लघु) + २; २+४+२x२+।।। (तीन लघु), १५ मात्रा पर यति). कुंकुम (२७ मात्रा, २४२+४+२४२+। (एक लघु) + २, २+४+२+२+।। (दो लघु), १५ मात्रा पर यति)५. इसी सम्बन्ध में तीन और द्विपदी छंद महत्त्वपूर्ण हैं, जिनका संबंध हिंदी के सवैया छंद के विविध मात्रिक रूपों (वर्णिक भेदों से भी) से है। स्कन्धकसम (३२ मात्रा, ८४४ (चतुर्मात्रिकगण), १०, ८, १४ यति) मौक्तिकदाम (३२ मात्रा, ८x४ (चतुर्मात्रिकगण), १२, ८, १२ यति) नवकदलीपत्र (३२ मात्रा, ८x४ (चतुर्मात्रिकगण), १४, ८, १० यति) १. ते यमितेऽन्तेऽडिला (५-३०) ॥ ते वदनकोपवदनके चतुर्णा पादानां द्वयोर्द्वयोर्वान्ते यमकिते सत्यडिला । २. इसकी पुष्टि राजशेखर के 'छन्दःशेखर' से भी होती है - उत्साहहेलावदनाडिलाधैर्यद् गीयते मंगलवाचि किंचित् । तद्रूपकाणामभिधानपूर्वं छन्दोविदो मंगलमामनन्ति ।। तैरेवधवलव्याजात् पुरुषः स्तूयते यदि । तद्वदेव तदानेको धवलोप्यभिधीयते ॥ (छन्द:शेखर ५.२७-२८) । तथा 'इअ धवलमंगलाई जेहिं चिअ लक्खणेहिं बज्झन्ति । ताई चिअ णामाई भणिआई छन्दवित्तेहिं ।। (स्वयंभू ४.४१) साथ ही छन्दोनुशासन ५.३९-४१ । ३. एतौ उल्लालको मागधानाम् – छन्दोनुशासन ( ७.३ की वृत्ति) ४. दाचदालदाचदालि कर्पूरो णैः (७.२) । द्वौ द्विमात्रौ चतुर्मात्रो द्वौ द्विमात्रौ लघू द्वौ द्विमात्रौ चतुर्मात्रो द्वौ द्विमात्रौ लघुत्रयं च कर्पूरः । णैरिति पञ्चदशभिर्मात्राभिर्यतिः ।। ५. सोऽन्त्यलोन: कुंकुमः (७.३) ॥ स एव कर्पूरः अन्त्यलघुना ऊनः कुंकुमः ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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