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________________ ३२] प्राकृतपैंगलम् [१.६२ पढमं वी हंसपअं बीए सीहस्स विक्कम जाआ । तीए गअवरलुलिअं अहिवरलुलिअं चउत्थए गाहा ॥६२॥ (गाहा) ६२. गाथा पढ़ने के ढंग का संकेत करते हैं - प्रथम चरण में हंस की गति की तरह मंथर गति से पढे, द्वितीय चरण में सिंह के विक्रम की तरह पढे, तृतीय चरण में हाथी की गति की तरह, तथा चतुर्थ चरण में सर्प की गतिकी तरह पढ़े। टिप्पणी-चउत्थए < चतुर्थके (क्रमात्मक संख्यावाचक विशेषण, पिशेल ६ ४४९. 'चउत्थ' (अर्धमा०, जैनम०, अप०), चात्थ (महा०), चउत्थ (शौर, मा०-मृच्छकटिक), चउत्थ (ढक्की; मृच्छकटिक), चदुठ्ठ (शौर० शाकुंतल). चउत्थ+ए. अधिकरण ए० व० हि० चौथा रा० चौथो (उ० चो' तो)। एक्के जे कुलमंती बे णाअक्केहि होइ संगहिणी । णाअकहीणा रंडा वेसा बहुणाअका होइ ॥६३॥ [गाहा] ६३. गाथा के संबंध में जगण के प्रयोग का संकेत करते हैं। . एक जगण होने पर गाथा कुलवती (पतिव्रता नारी के समान श्लाघ्य) होती है। दो नायकों (जगणों) के होने पर वह स्वयंगृहीता (पुनर्भू) होती है। नायक (जगण) के न होने पर गाथा रंडा के समान बुरी होती है तथा अनेक नायक (जगण) वाली गाथा वेश्या होती है । इसमें इस बात का संकेत किया गया है कि गाथा में केवल एक ही जगण (151) का प्रयोग करना चाहिए । टिप्पणी-कुलमंती कुल+मंत+ई । मंत सं० वत्-मत् । णाअक्केहि <*नायकैः(नायकाभ्यां) । हिँ; करण ब० व०, छंद की सुविधा के कारण अवहट्ट में 'क' का द्वित्व हो गया है। प्राकृत में इसका रूप 'णाअएहिँ' होगा। यह अवहट्ट रूप प्राकृत से विकसित न होकर सीधे संस्कृत रूप का अवहट्ट संस्करण है, जिसमें प्राकृत-अप० विभक्ति लगाई गई है। वेसा वेश्या । तेरह लहुआ विप्पी एआईसेहिं खत्तिणी भणिआ । सत्ताईसा वेसी सेसा सा सुद्दिणी होइ ॥६४॥ [गाहा] ६४. अब लघुसंख्या के भेद से गाथा की जाति बताते हैं। तेरह लघु अक्षर होने पर गाथा ब्राह्मणी होती है, इक्कीस लघु होने पर क्षत्रिया, सत्ताईस लघु होने पर वेश्या होती है, तथा शेष प्रकारों में शूद्रा होती है। टिप्पणी-तेरह त्रयोदश ६ १३ । विप्पी<विप्प+ई । स्त्रीलिंगवाचक 'ई' प्रत्यय, सं० विप्रा । एआईसेहि-एआईस + हिँ (एहिँ)। एआईस < एकविंशति । इसका वैकल्पिक रूप अर्धमा०, जैनमहा० एक्कावीसं, एगवीसा, इगायीसं मिलते हैं; एआईस महाराष्ट्री है। हि० इक्कीस, रा० इक्कीस-अक्कीस-इक्की-अक्की का विकास ‘एक्कावीसं' से ही हुआ है। ६२. वी-C. विअ. K. ची, 0. विय । सीहस्स-B. सिंह, C. D. K. सिंहस्स । हंसपअं-D. हंसपयं । जाआ-D. याआ । गअवरलुलिअं-D. गयवरलुहिअं । अहिवरलुलिअं-अद्दिलुलिअं, O. अहिवरलुलिअ । चउत्थए-B. चउत्था, 0. चउपआ । ६३. एक्के-D. एके । कुलमंती-A. D. कुलवंती, C. कुलमत्ता । णाअक्केहि-C. एक्केहि, A. D. O. "हि, K. हि । णाअकहीणाA.C. णाअक्क । बहुणाअका-D. °णायका । होइ-B. होई। ६३.-C.६७ । ६४. विप्पी-B. विप्पा । एआईसेहि-A. एआईसेहि। C. प्रतौ एतच्छंदो न प्राप्यते । वेसी-0. वसि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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