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________________ ५२६ प्राकृतपैंगलम् (२) लयात्मक : इसमें प्रस्तुत समान आवर्तक ध्वनियों से पाठक तथा श्रोता को आनन्द प्राप्त होता है । (३) भाषणशास्त्रीय तथा भावात्मक : इसके द्वारा प्रमुख शब्दों पर स्वाभाविक अवधारण (emphasis) व्यक्त कर उसके द्वारा किन्हीं विशिष्ट भाव-तन्त्रियों को झंकृत किया जाता है ।। बँगला लेखक श्री कालिदास राय का कहना है कि "कविता में तुक-व्यवस्था से ताल, मान, लय, यति, विरति सभी नियमित हो जाते हैं। तुक के द्वारा पद्य की गद्यात्मकता से रक्षा होती है, कवि की लेखनी को विश्राम देकर संयत कर दिया जाता है, आवृत्तिकाल में पाठक के कण्ठस्वर को उठाने में सहायता होती है, स्नेहाक्त करके पाठक के वाग्यत्न को बिना किसी विशेष प्रयास के चलने में गतिमान कर दिया जाता है । तुक रचना की गतिक्लिष्टता का अपहरण करती है, सुर को बारम्बार नवीभूत करती है, ध्वनिक्लान्त वर्ण की क्लान्ति का अपनोदन कर उसे नवनवोत्तेजना प्रदान करती है, तथा दीर्घ छन्द के मार्ग में ठीक वही काम करती है, जो दूर की मंजिल तै करनेवाले पांथ के मार्ग में सराय या पान्थशाला।" श्री राय ने यहाँ तुक की विविध छन्दोगत प्रक्रियाओं पर संक्षेप में सटीक प्रकाश डाला है। 'तुक' का तात्पर्य उन एक-सी आवर्तक ध्वनियों से है, जो गुणात्मक दृष्टि से एक-सी होने पर भी पूर्णतः अभिन्न नहीं होती तथा प्राय: छन्द के चरणों के अन्त में इसलिए प्रयुक्त होती है कि इनकी योजना से छन्द एक निश्चित कलात्मक संस्थान (artistic pattern) में आबद्ध हो जाता है। जहाँ तक 'तुक' में प्रयुक्त इन समान आवर्तक ध्वनियों का प्रश्न है, 'तुक' का पूर्ण रूप ही प्रशस्त माना जाता है। अपूर्ण तुक को प्रायः कलात्मक तथा छन्दःशास्त्रीय दृष्टि से दोष माना जाता है । पूर्ण तुक के लिए निम्न लक्षणों का होना आवश्यक है : १. पादांत में प्रयुक्त अन्तिम उदात्त स्वर ध्वनि सभी आवर्तक तुकों में पूर्णतः अभिन्न हो, अर्थात् तुक वाले शब्द की स्वर ध्वनियाँ गुण तथा उदात्तादि स्वर (accentuation) की दृष्टि से समान हों । २. उक्त आवर्तक स्वर ध्वनि से बाद की समस्त व्यञ्जन या स्वर ध्वनियाँ भी परस्पर अभिन्न हों । ३. उक्त आवर्तक स्वरध्वनि की पूर्ववर्ती व्यञ्जन ध्वनि भिन्न हो । इन तीनों बातों का ध्यान रखने पर ही परिपूर्ण 'तुक' की योजना हो पाती है, अन्य प्रकार से 'तुक' योजना करने पर वह अपूर्ण तुक कहलाती है। जैसे 'निसंक-मयंक' 'मृदंग-विहंग' की तुक परिपूर्ण है, किन्तु 'वण्ण-दिण्ण', 'दीओसु-देसु', 'वेद-विनोद' जैसी तुक अपूर्ण तथा दुष्ट है। पूर्ण तुक को ही फ्रेंच भाषा में 'समृद्ध तुक' (Rime riche) कहा जाता है । 'तुक' के पुनः दो भेद किये जाते हैं : (1) पुरुष (या पुरुष) तुक (Male Rime)- वह तुक जहाँ केवल एकाक्षर तुक (one-syllabic rime) पाई जाती है, जैसे, बँधी महावट से नौका थी, सूखे में अब पड़ी रही । उतर चला था अब जलप्लावन और निकलने लगी मही ॥ (२) कोमल (या ललित) तुक (female rime)-वह तुक जहाँ व्यक्षर-त्र्यक्षर (bisyllabic or trisyllabic rime) तुक पाई जाती है, जैसे अबधेस के द्वारे सकारे गई सुत गोद कै भूपति लै निकसे । अवलोकि हाँ सोच विमोचन को ठगि सी रहि जे न ठगे धिक-से ॥ हिन्दी कवियों ने व्यक्षर तथा त्र्यक्षर तुक को अधिक पसंद किया है। प्रा० पैं० में दोनों तुकें हैं, पर ललित १. Egerton Smith : The Principles of English Metre pp. 172-73. २. मिलइ कवितार ताल, मान, लय, यति, विरति सबइ नियमित करे । पद्य गद्यात्मकता होइते रक्षा करे, कविवर लेखनी के विराम देयओ संयत करे, आवृत्तिकाले पाठकेर कंठस्वर के उठानामार साहाय्य करे, स्नेहाक्त करिया ताहार वाग्यत्न के अबाध चलिबार बेगमान करे । मिल रचनार गतिक्लिष्टता हरन करे, सुरके बारम्बार नवी भूत करिया देये, ध्वनिक्लान्त वर्णेर क्लान्ति अपनोदन करिया नव नव उत्तेजना देये, दीर्घ छन्देर पथे 'मिल' गुलि येन मिलनेर पान्थनिवास । - साहित्येप्रसङ्ग पृ० १२९. ३. Shipley : Dictionary of World Literary Terms. p. 346. (1955). Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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