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________________ प्राकृतपैंगलम् डगमग (१.९), ढोल्ला, (१.१४७), झंकार (२.२१३), झंझणक्कइ (२.१८५), झणज्झणिअ (२.१७७), रणरणत (२.१७७), हलहलिअ (१.८७), टरपरिअ (१.९२), फंफाइ (१.१०८), धह धह (१.१९०), उच्छलइ (१.१९३) < सं० Vउच्छल्, धिक्कदलण (१.२०१), थोंगदलण (१.२०१), तक्क (१.२०१), णं ण णु कट, (१.२०१), दिगदुकट (१.२०१), हक्क (१.२०१), खुदि खुदि (१.२०४), घघर (१.२०४), णणगिदि (१.२०४), टटगिदि (१.१०४), टपु (१.२०४ = घोड़े की टाप), चकमक (१.२०४), दमकि दमकि (१.२०४), घुलकि घुलकि (१.२०४). प्रा० ० के तत्सम तथा अर्धतत्सम शब्द ६ १२७. जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं, प्रा० पैं. की भाषा में अनेक तत्सम तथा अर्धतत्सम शब्द पाये जाते हैं । वैसे इनका अनुपात मध्यकालीन हिन्दी की अपेक्षा बहुत कम है, किन्तु यह इनकी बढ़ती हुई संख्या का संकेत कर सकता है । निदर्शन के लिए कुछ तत्सम तथा अर्धतत्सम शब्द निम्न हैं : (क) तत्सम : सहज (१.७), कुगति (१.९), वीर (१.६९), वंदे (१.८३), कमठ (१.९२), परिकर (१.१०४), कलेवर (१.१०६), गरल (१.१११), विमल (१.१११), दुरित (१.१११), अतुल (१.१११), चंचल (१.१३२), अरविंद (१.१३५), पिकराव (१.१३५), कुहर (१.१३५), दुरंत (१.१३५), दिगंतर (१.१३५), किरण (१.१६२), वसंत (१.६३), समाज (१.१५९), सेवक (१.१५९), अभिमत (२.१३८), लोभ (२.१५५), देव (२.१५५), अंधकार (२.१७३), पिक (२.१७९), वितर (२.१७९), भूत (२.१८३), वेताल (२.१८३), भुज (२.२१५) । (ख) अर्धतत्सम : णदिहिँ (१.९), सँतार (१.९), णाअक (१.६३ < नायक), मणोभव (१.१३५), सेविअ (१.९५), मुणिगण (१.१९५), भवभअहरणं (१.१९५), गिरिवर (१.९५), डाकिणि (१.२०९), सहावा (१.२०९ < स्वभावः), कालिक्का (१.४२), दूरित्ता (१.४२), अभिणउ (१.४८ < अभिनय), सोक (२.१५५ < शोक), दुरित्त (२.१५५), चंदकलाभरणा (२.१५५), मेणक्का (२.१५५), मेणक्का (२.१५५ < मेनका), णीलाकारउ (२.१८१), कोतुक (२.१९७ < कौतुक)। प्रा० ० के तद्भव शब्द १२८. प्रा० पैं० की भाषा के शब्दकोष में अधिक अनुपात तद्भव शब्दों का ही है, जो प्राकृत-अपभ्रंश के ध्वन्यात्मक नियमों की पाबन्दी करते हुए प्रा० भा० आ० शब्दों के ही विकास हैं । इस कोटि के शब्दों के कतिपय उदाहरण ये हैं : मत्त (१.१ < मात्रा, राज० मात), साअर (१.१ < सागर; मध्य हि० सायर), पढम (१.१ < प्रथम), वंक (१.२ < वक्र, हि० बाँका), जिण्णो (१.३ < जीर्णः, राज० गुज० जूनो < *जुण्णो), वुड्डओ (१.३ < वृद्धकः, हि० बूढा), कडक्ख (१.४ < कटाक्ष), काइँ (१.६ < कानि), भुअंगम (१.६ < भुजंगम), उल्हसंत (१.७ < उल्लसत्), जीहा (१.८ < जिह्वा), कान्ह (१.९ < कृष्ण), णाव (१.१० < नौ), कणअ (१.१ < कनक), कव्व (१.११ < काव्य), सीस (१.११ < शीर्ष), अप्प (१.१४ < आत्म-), सरिसा (१.१४ > सदृशा, राज० स्त्री० सरीसी), लक्ख (१.५० < लक्ख), कोडी १.५० < कोटि), चंदण (१.५३ > चंदन), रूअ (१.५३ < रूप), कित्ती (१.५३ < कीर्तिः), विणा (१.५५ < विना, हि० बिना, पू० राज० बना), वल्लहो (१.५ < वल्लभः), णअर (१.५५ < नगर), डाह (१.५५ < दाह), अग्गी (१.५५ < अग्निः , हि० राज० आग-आगि), लच्छी (१.५९ < लक्ष्मी), हिअअ (१.६७ < हृदय), गेण्हइ (१.६७ < गृह्णाति), णीव (१.६७ < नीप), णअण (१.६९ < नयन), मुह (१.६९ मुख, हि० मुँह, राज० मूं), खग्ग (१.७१ < खड्ग), विट्ठि (१.७२ < वृष्टि), भुअण (१.७२ < भुवन), सुरही (१.७९ < सुरभिका), परसमणि (१.७९ < स्पर्शमणि), वक्कल (१.७९ < वल्कल), पव्वई (१.८३ < पार्वती), पिट्ठ (१.९२ < पृष्ठ, हि० राज० पीठ), कोह (१.९२ < क्रोध), कट्ठ (१.९२ < कष्ट, राज० क'ट, अर्थ 'दुःख') गिव (१.९८ < ग्रीवा), ससहर (१.१११) < शशधर), वाउलउ (१.११६ < वातुल:), बहिर (१.११६ < बधिरः, रा० ब'रो, हि० बहरा), दुब्बल (१.११६ < दुर्बलः, हि० दुबला, राज० दूबळो), काणा (१.११६ < काण:), जुव्वण (१.१३२ राज० जीवन), कंत (१.१३५ < कांतः, राज० कंत), पिअ (१.१५७ प्रिय, ब्रज० राज० प्रिय), महु (१.१६६ < मधु), रअणिपहु (१.१६२ < रजनी-प्रभुः), सहि (१.१६३ < सखि संबो.), घण (१.१६६ < घन:), Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001440
Book TitlePrakritpaingalam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBholashankar Vyas, Vasudev S Agarwal, Dalsukh Malvania
PublisherPrakrit Text Society Ahmedabad
Publication Year2007
Total Pages690
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Apbhramsa
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size18 MB
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